Tuesday, May 17, 2011

चाणक्य नीति अध्याय चतुर्दश

निर्धनत्व दुःख बन्ध और विपत्ति सात ।
है स्वकर्म वृक्ष जात ये फलै धरेक गात ॥१॥
मनुष्य अपने द्वारा पल्लवित अपराध रूपी वृक्ष
के ये ही फल फलते हैं--दरिद्रता, रोग, दुःख,
बन्धन (कैद) और व्यसन ॥१॥
म०छ०-
फेरि वित्त फेरि मित्त, फेरि तो धराहु नित्त

फेरि फेरि सर्व एह, ये मानुषी मिलै न देह ॥२॥
गया हुआ धन वापस मिल सकता है, रूठा हुआ
मित्र भी राजी किया जा सकता है, हाथ से
निकली हुई स्त्री भी फिर वापस आ सकती है,
और छीनी हुई जमीन भी फिर मिल सकती है, पर
गया हुआ यह शरीर वापस नहीं मिल सकता ॥
२॥
म०छ०-
एक ह्वै अनेक लोग वीर्य शत्रु जीत योग ।
मेघ धारि बारि जेत घास ढेर बारि देत ॥३॥
बहुत प्राणियोंका सङ्गठित बल शत्रु
को परास्त कर देता है, प्रचण्ड वेग के साथ
बरसते हुए मेघ को सङ्गठन के बल से क्षुद्र तिनके
हरा देते हैं ॥३॥
म०छ०-
थोर तेल बारि माहिं । गुप्तहू खलानि माहिं ।
दान शास्त्र पात्रज्ञानि । ये बडे स्वभाव
आहि ॥४॥
जल में तेल, दुष्ट मनुष्य में कोई गुप्त बात,
सुपात्र में थोडा भी दान और समझदार मनुष्य के
पास शास्त्र, ये थोडे होते हुए भी पात्र के
प्रभाव से तुरन्त फैल जाते हैं ॥४॥
म०छ०-
धर्म वीरता मशान । रोग माहिं जौन ज्ञान ।
जो रहे वही सदाइ । बन्ध को न मुक्त होइ ॥
५॥
कोई धार्मिक आख्यान सुनने पर, श्मशान में और
रुग्णावस्था में मनुष्य की जैसी बुध्दि रहती है,
वैसी यदि हमेशा रहे तो कौन मोक्षपद न
प्राप्त कर ले? ॥५॥
म०छ०-
आदि चूकि अन्त शोच । जो रहै विचारि दोष ।
पूर्वही बनै जो वैस । कौन को मिले न ऎश ॥६॥
कोई बुरा काम करने पर पछतावे के समय मनुष्य
की जैसी बुध्दि रहती है, वैसी यदि पहले ही से
रहे तो कौन मनुष्य उन्नत न हो जाय ॥६॥
म०छ०-
दान नय विनय नगीच शूरता विज्ञान बीच ।
कीजिये अचर्ज नाहिं, रत्न ढेर भूमि माहिं ॥
७॥
दान, ताप, वीरता, विज्ञान और नीति, इनके
विषय में कभी किसी को विस्मित
होना ही नहीं चाहिये । क्योंकि पृथ्वी में बहुत
से रत्न भरे पडे हैं ॥७॥
म०छ०-
दूरहू बसै नगीच, जासु जौन चित्त बीच ।
जो न जासु चित्त पूर । है समीपहूँ सो दूर ॥८॥
जो(मनुष्य) जिसके हृदय में स्थान किये है, वह
दुर रहकर भी दूर नहीं है । जो जिसके हृदय में
नहीं रहता, वह समीप रहने पर भी दूर है ॥८॥
म०छ०-
जाहिते चहे सुपास, मीठी बोली तासु पास ।
व्याध मारिबे मृगान, मंत्र गावतो सुगान ॥९॥
मनुष्य को चाहिए कि जिस किसी से
अपना भला चाहता हो उससे हमेशा मीठी बातें
करे । क्योंकि बहेलिया जब हिरन का शिकार
करने जाता है तो बडे मीठे स्वर से गाता है ॥
९॥
म०छ०-
अति पास नाश हेत, दूरहू ते फलन देत ।
सेवनीय मध्य भाग, गुरु, भूप नारि आग ॥१०॥
राजा, अग्नि, गुरु, और स्त्रियाँ-इनके पास
अधिक रहने पर विनाश निश्चित है और दूर
रहा जाय तो कुछ मतलब नहीं निकलता ।
इसलिए इन चारों की आराधना ऎसे करे कि न
ज्यादा पास रहे न ज्यादा दूर ॥१०॥
म०छ०-
अग्नि सर्प मूर्ख नारि, राजवंश और वारि ।
यत्न साथ सेवनीय, सद्य ये हरै छ जीय ॥११॥
आग, पानी, मूर्ख, नारी और राज-परिवार
इनकी यत्नके साथ आराधना करै । क्योंकि ये सब
तुरन्त प्राण लेने वाले जीव हैं ॥११॥
म०छ०-
जीवतो गुणी जो होय, या सुधर्म युक्त जीव ।
धर्म और गुणी न जासु, जीवनो सुव्यर्थ तासु ॥
१२॥
जो गुणी है, उसका जीवन सफल है
या जो धर्मात्मा है, उसका जन्म सार्थक है ।
इसके विपरीत गुण और धर्म से विहीन जीवन
निष्प्रयोजन है ॥१२॥
म०छ०-
चाहते वशै जो कीन, एक कर्म लोक तीन ।
पन्द्रहों के तो सुखान, जान तो बहार आन ॥
१३॥
यदि तुम केवल एक काम से सारे संसार को अपने
वश में करना चाहते हो तो पन्द्रह मुखवाले
राक्षस के सामने चरती हुई
इन्द्रयरूपी गैयों को उधरसे हटा लो । ये
पन्द्रह मुख कौन हैं- आँख, नाक, कान, जीभ और
त्वचा ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ मुख, हाँथ, पाँव,
लिंग और गुदा, ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ रूप, रस,
गन्ध, शब्द और स्पर्श, ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के
विषय हैं ॥१३॥
सो०--
प्रिय स्वभाव अनुकूल, योग प्रसंगे वचन पुनि ।
निजबल के समतूल, कोप जान पण्डित सोई ॥
१४॥
जो मनुष्य प्रसंगानुसार बात, प्रकृति के अनुकूल
प्रेम और अपनी शक्तिके अनुसार क्रोध
करना जानता है, वही पंडित है ॥१४॥
सो०--
वस्तु एक ही होय, तीनि तरह देखी गई ।
रति मृत माँसू सोय, कामी योगी कुकुर सो ॥
१५॥
एक स्त्री के शरीर को तीन जीव तीन दृष्टि से
देखते हैं-योगी उसे बदबूदार मुर्दे के रूप में देखते
हैं कामी उसे कामिनी समझता है और कुत्ता उसे
मांसपिण्ड जानता है ॥१५॥
सो०--
सिध्दौषध औ धर्म, मैथुन कुवचन भोजनो ।
अपने घरको मर्म, चतुर नहीं प्रगटित करै ॥
१६॥
बुध्दिमान् को चाहिए कि इन
बातों को किसी से न जाहिर करे-अच्छी तरह
तैयार की हुई औषधि, धर्म अपने घर का दोष,
दूषित भोजन और निंद्यं किं वदन्ती बचन ॥
१६॥
सो०--
तौलौं मौने ठानि, कोकिलहू दिन काटते ।
जौलौं आनन्द खानि, सब को वाणी होत है ॥
१७॥
कोयमें तब तक चुपचाप दिन बिता देती हैं जबतक
कि वे सब लोगों के मन को आनन्दित
करनेवाली वाणी नहीं बोलतीं ॥१७॥
सो०--
धर्म धान्य धनवानि, गुरु वच औषध पाँच यह ।
धर्म, धन, धान्य, गुरु का वचन और औषधि इन
वस्तुओं को सावधानी के साथ अपनावे और उनके
अनुसार चले । जो ऎसा नहीं करता, वह
नहीं जीता ॥१८॥
सो०--
तजौ दुष्ट सहवास, भजो साधु सङ्गम रुचिर ।
करौ पुण्य परकास, हरि सुमिरो जग नित्यहिं ॥
१९॥
दुष्टों का साथ छोड दो, भले लोगों के समागम में
रहो, अपने दिन और रात को पवित्र करके
बिताओ और इस अनित्य संसार में नित्य ईश्वर
का स्मरण करते रहो ॥१९॥
इति चाणक्ये चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥

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