Thursday, May 7, 2020

हिन्दु धर्म ने ही विश्व को सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया



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हिन्दू-धर्मका हित-साधन प्रकार ही विश्वके समस्त धर्मों एवं वर्गोसे भिन्न है। यहाँ किसीको हिन्दू तो बनाना है ही नही, विचारों का प्रसार करना है और जो जहाँ है, उसको वहीं से अंतर्मुख होनेका प्रयत्न करना है , साधन सब ठीक है, यदि वे स्वार्थ अहंकार से अलूषित न हो। स्वार्थ अहं से रूपर उठकर साधनकी पूर्णता करनेमें सबका कल्याण है। हिन्दू किसी को हिन्दू तो नही बनाना चाहता, किंतु मनुष्य अवश्य बनाना चाहता है। अपने अहंकार की परिधिमें संकुचित होकर दूसरे मत धर्म को हीन मानना ही पशुत्व है। यदी मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनना है तो उसे हिंदुत्व की धारणा स्वीकार करनी होगी। हम इतिहास के पृष्ठों को देखते है कि ईसामशीह को सूली पर चढ़ा दिया गया, सुकरात को विष पिला दिया गया व मंसूर की हत्या कर दी गयी ये सब महापुरुष माने जाते थे ऐसे ही कई महापुरुषों उच्च कोटि के वैज्ञानिकों कवियों की यूरोप सहित विश्व के कई देशों में हत्याए कर दी गयी। ये इसलिए कि वहां का समाज उनके विचारों को सह नही सका और उनके साथ पशु समान आचरण करने लगा। एक वर्ग भारत मे भी ऐसा है जो सिर्फ स्वयं को ही मनुष्य मानता है अन्य  सभी को पशु। ये वर्ग अपने को मनुष्य कहलाने वाले अहंकार से मोहित पशु से भी हीन है जब ये वर्ग अन्य मनुष्यो की हत्या, उन्हें लूटना, उनपर अत्याचार करना, उन्हें मतांतरित करना अपना कर्तव्य मान लेता है और इन कर्तव्य का विभिन्न कुतर्कों से समर्थन करने लगता है। ये सब किसी की हत्या करना, लूटने को उन पर दया करना बताने लगते है तब कदाचित पिशाच भी उनसे घृणा करता होगा। इस प्रकार अहंकार उसे मनुष्यत्व से गिरा कर पशु बना देता है। हिन्दू धर्म को छोड़कर विश्व मे जितने भी धर्म, समाज, पंथ, वर्ग है सबकी एक ही मान्यता है कि उनका मत, उनकी प्रद्धति, उनके कार्य ही सर्वश्रेष्ट भ्रांतिहिन है केवल उसी से मनुष्य का कल्याण हो सकता है। साम्यवादी अर्थ प्रद्धति से लेकर अहिंसा प्रधान धर्मोकी भी यह दशा है। इसका परिणाम यह होता है कि वे शेष मानव जाति के प्रति दयालु होकर उसे अपने मतमें लाने लानेका पुरजोर प्रयत्न करते है। यह दया उपदेश तक रहे तो कोई बात नही परन्तु दयाकी प्रेरणा इतनी तीव्र होती है कि छल-कपट, प्रलोभन, बल प्रयोग तथा हिंसासे भी वे हिचकते नहीं क्योंकि मनुष्य जाति का कल्याण जो करना है! मनुष्य जाति इन हित-साधकों के संघर्ष में पड़ी है और प्रत्येक उन्हें क्रूर पशु प्रतीत होता है। 
यह बात विश्व मे अत्यंत सपष्ट है कि दूसरों पर आक्षेप, संघर्ष व दुसरो पर असहिष्णुता वही लोग प्रकट करते है जो अपने सिद्धांतों आचार पर नही चलते है, स्वार्थ ही जिनका आचार है  उनकी बात तो छोड़ देनी चाइए; पर स्वार्थ से ऊपर उठकर जो अपने आचार का पालन जितनी दृढ़ता से करेगा, वह दूसरे के आचार एवं विचार के प्रति उतना ही सहिष्णु होगा। असहिष्णुता उन्ही लोगो द्वारा प्रकट होती हैं, जो अपने आचार सिद्धान्त की श्रेष्ठता बड़े उच्च स्वर में घोषित करते है किंतु उस पर चलते नही उनको जीवन में उतारते नही। आचार उनका स्वार्थ प्रेरित दिखावा होता है। हिन्दू धर्म ने पूरे जीवन को नियमो में सीमित कर दिया दिया, आचार-विचार के सम्बंध में हिन्दू-समाज पूर्ण स्वतंत्र है हिन्दू उन्मुक्त विचार का है इसलिए हिन्दू समाज मे आचार की च्युतिका अवकास रहा ही नही। फलतः विचारों की असहिष्णुता वहाँ उत्पन्न नही हुई। विचारों की असहिष्णुता उन्ही देशों और जातियों में हुई , जहाँ जीवन अनियंत्रित था।
आजकल कहा जाता है कि 'जाति', सम्प्रदाय पंथ आदी भेद ही झगड़े की जड़ है। सभी जातियों, वर्णों तथा धर्मों को एक हो जाना चाहिए, जातिविहीन धर्म विहीन समाज हो जाना चाइए,इससे विवाद और संगर्ष मिट जाएगा। लेकिन ये बात प्रलोभनकारी भ्रमपूर्ण है। संघर्ष का कारण जाती , धर्म, पंथ ना होकर स्वार्थ और अहं है। वस्तुतः धर्म और उनके आचार की उपेक्षा से ही संघर्ष बड़ा है। ये संघर्ष प्राचीन काल में उन्ही समाज जातियों में अधिक हुए जहाँ भेद नही थे। जहाँ आचार पर बल नही दिया ,वही विचारों की असहिष्णुता उत्पन्न हुई। आचार के बन्धन नष्ट करने से स्वार्थ अहं बढेगा। एक प्रकार के वर्ग मिटेंगे तो दूसरे प्रकार के वर्ग बनेंगे। संघर्ष तो बढेगा ही। संघर्ष मिटाने के लिए तो विचारों की सहिष्णुता आवश्यक है और हिन्दू-धर्मकी युग-युग की सहिष्णुता इसका प्रमाण है कि सहिष्णुता आचार निष्ठा से प्राप्त होती है।

#जीवन_तन_मन_वचन_धन_भोजन_जन_व्यवहार।
#अति__निर्मल_सुपवित्र_हों__वस्तु_सभी_आचार।।

✍️विजयकुमार ओझा

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