Thursday, May 7, 2020

हिन्दु धर्म ने ही विश्व को सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया



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हिन्दू-धर्मका हित-साधन प्रकार ही विश्वके समस्त धर्मों एवं वर्गोसे भिन्न है। यहाँ किसीको हिन्दू तो बनाना है ही नही, विचारों का प्रसार करना है और जो जहाँ है, उसको वहीं से अंतर्मुख होनेका प्रयत्न करना है , साधन सब ठीक है, यदि वे स्वार्थ अहंकार से अलूषित न हो। स्वार्थ अहं से रूपर उठकर साधनकी पूर्णता करनेमें सबका कल्याण है। हिन्दू किसी को हिन्दू तो नही बनाना चाहता, किंतु मनुष्य अवश्य बनाना चाहता है। अपने अहंकार की परिधिमें संकुचित होकर दूसरे मत धर्म को हीन मानना ही पशुत्व है। यदी मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनना है तो उसे हिंदुत्व की धारणा स्वीकार करनी होगी। हम इतिहास के पृष्ठों को देखते है कि ईसामशीह को सूली पर चढ़ा दिया गया, सुकरात को विष पिला दिया गया व मंसूर की हत्या कर दी गयी ये सब महापुरुष माने जाते थे ऐसे ही कई महापुरुषों उच्च कोटि के वैज्ञानिकों कवियों की यूरोप सहित विश्व के कई देशों में हत्याए कर दी गयी। ये इसलिए कि वहां का समाज उनके विचारों को सह नही सका और उनके साथ पशु समान आचरण करने लगा। एक वर्ग भारत मे भी ऐसा है जो सिर्फ स्वयं को ही मनुष्य मानता है अन्य  सभी को पशु। ये वर्ग अपने को मनुष्य कहलाने वाले अहंकार से मोहित पशु से भी हीन है जब ये वर्ग अन्य मनुष्यो की हत्या, उन्हें लूटना, उनपर अत्याचार करना, उन्हें मतांतरित करना अपना कर्तव्य मान लेता है और इन कर्तव्य का विभिन्न कुतर्कों से समर्थन करने लगता है। ये सब किसी की हत्या करना, लूटने को उन पर दया करना बताने लगते है तब कदाचित पिशाच भी उनसे घृणा करता होगा। इस प्रकार अहंकार उसे मनुष्यत्व से गिरा कर पशु बना देता है। हिन्दू धर्म को छोड़कर विश्व मे जितने भी धर्म, समाज, पंथ, वर्ग है सबकी एक ही मान्यता है कि उनका मत, उनकी प्रद्धति, उनके कार्य ही सर्वश्रेष्ट भ्रांतिहिन है केवल उसी से मनुष्य का कल्याण हो सकता है। साम्यवादी अर्थ प्रद्धति से लेकर अहिंसा प्रधान धर्मोकी भी यह दशा है। इसका परिणाम यह होता है कि वे शेष मानव जाति के प्रति दयालु होकर उसे अपने मतमें लाने लानेका पुरजोर प्रयत्न करते है। यह दया उपदेश तक रहे तो कोई बात नही परन्तु दयाकी प्रेरणा इतनी तीव्र होती है कि छल-कपट, प्रलोभन, बल प्रयोग तथा हिंसासे भी वे हिचकते नहीं क्योंकि मनुष्य जाति का कल्याण जो करना है! मनुष्य जाति इन हित-साधकों के संघर्ष में पड़ी है और प्रत्येक उन्हें क्रूर पशु प्रतीत होता है। 
यह बात विश्व मे अत्यंत सपष्ट है कि दूसरों पर आक्षेप, संघर्ष व दुसरो पर असहिष्णुता वही लोग प्रकट करते है जो अपने सिद्धांतों आचार पर नही चलते है, स्वार्थ ही जिनका आचार है  उनकी बात तो छोड़ देनी चाइए; पर स्वार्थ से ऊपर उठकर जो अपने आचार का पालन जितनी दृढ़ता से करेगा, वह दूसरे के आचार एवं विचार के प्रति उतना ही सहिष्णु होगा। असहिष्णुता उन्ही लोगो द्वारा प्रकट होती हैं, जो अपने आचार सिद्धान्त की श्रेष्ठता बड़े उच्च स्वर में घोषित करते है किंतु उस पर चलते नही उनको जीवन में उतारते नही। आचार उनका स्वार्थ प्रेरित दिखावा होता है। हिन्दू धर्म ने पूरे जीवन को नियमो में सीमित कर दिया दिया, आचार-विचार के सम्बंध में हिन्दू-समाज पूर्ण स्वतंत्र है हिन्दू उन्मुक्त विचार का है इसलिए हिन्दू समाज मे आचार की च्युतिका अवकास रहा ही नही। फलतः विचारों की असहिष्णुता वहाँ उत्पन्न नही हुई। विचारों की असहिष्णुता उन्ही देशों और जातियों में हुई , जहाँ जीवन अनियंत्रित था।
आजकल कहा जाता है कि 'जाति', सम्प्रदाय पंथ आदी भेद ही झगड़े की जड़ है। सभी जातियों, वर्णों तथा धर्मों को एक हो जाना चाहिए, जातिविहीन धर्म विहीन समाज हो जाना चाइए,इससे विवाद और संगर्ष मिट जाएगा। लेकिन ये बात प्रलोभनकारी भ्रमपूर्ण है। संघर्ष का कारण जाती , धर्म, पंथ ना होकर स्वार्थ और अहं है। वस्तुतः धर्म और उनके आचार की उपेक्षा से ही संघर्ष बड़ा है। ये संघर्ष प्राचीन काल में उन्ही समाज जातियों में अधिक हुए जहाँ भेद नही थे। जहाँ आचार पर बल नही दिया ,वही विचारों की असहिष्णुता उत्पन्न हुई। आचार के बन्धन नष्ट करने से स्वार्थ अहं बढेगा। एक प्रकार के वर्ग मिटेंगे तो दूसरे प्रकार के वर्ग बनेंगे। संघर्ष तो बढेगा ही। संघर्ष मिटाने के लिए तो विचारों की सहिष्णुता आवश्यक है और हिन्दू-धर्मकी युग-युग की सहिष्णुता इसका प्रमाण है कि सहिष्णुता आचार निष्ठा से प्राप्त होती है।

#जीवन_तन_मन_वचन_धन_भोजन_जन_व्यवहार।
#अति__निर्मल_सुपवित्र_हों__वस्तु_सभी_आचार।।

✍️विजयकुमार ओझा

जीवो के प्रति करुणा और दया रखना ही मानवता- गौतम बुद्ध

 
कपिलवस्तु जो नेपाल में स्थित था उसके राजा शुद्धोदन की पत्नी मायादेवी जब अपने मायके जा रही थी तो उसी समय कपिलवस्तु के कुछ मील दूर लुम्बिनी नामक स्थान पर उनके गर्भ से 563 ई.पूर्व में एक सुलक्षण तेजोमय पुत्र हुआ जिसका नाम रखा गया सिद्धार्थ। लेकिन जन्म एक सप्ताह बाद ही उसकी माता मायादेवी का देहांत हो गया तब राजकुमार का लालन-पालन उनकी विमाता गौतमीदेवी ने किया। राजकुमार सिद्धार्थ के जन्म पर ज्योतिषीयो ने भविष्यवाणी की थी कि राजकुमार या तो गृह त्यागकर वीतरागी अतिविख्यात महापुरुष होगा या चक्रवर्ती सम्राट। इस भविष्यवाणी से महाराज बहुत चिंतित रहने लगे कि कही राजकुमार विरक्त होकर गृह त्याग नहीं कर ले। इसी लिए महाराज ने महल में पूरी व्यवस्था कर रखी थी कि राजकुमार सिद्धार्थ के सम्मुख दुःख, शोक, पीड़ा, वृद्धावस्था, मृत्यु पीड़ा आदी कभी नही आये। आनंद, उल्लास, राज-रोग ही उनके चारो और बना रहे। सिद्धार्थ ने अपनी प्रतिभा से बहुत कम समय मे ही विद्याध्ययन पूर्ण कर ली। विद्याध्ययन सम्पूर्ण होने के बाद महाराज ने सिद्धार्थ का विवाह राजकुमारी यशोधरा के साथ कर दिया। विवाह के कुछ समय बाद से राजकुमार एकांत में व विचारमग्न रहने लगे। तब एक दिन राजकुमार के ह्रदय मे अपने नगर की यात्रा करने की तीव्र इच्छा प्रकट हुई तब राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने पिता महाराज से नगर यात्रा पर जाने के लिए कहा तो महाराज ने व्यवस्था की कि सम्पूर्ण नगर में कोई अप्रिय दृश्य राजकुमार के सामने प्रकट ना हो। लेकिन महाराज द्वारा सम्पूर्ण व्यवस्था करने के बाद भी राजकुमार को प्रथम यात्रा में एक वृद्ध व्यक्ति दिखाई दिया,द्वितीय यात्रा में एक रोगी व्यक्ति, तृतीय यात्रा में एक शव दिखाई दिया और चतुर्थ यात्रा में एक सन्यासी दिखा। जिस पर राजकुमार के ह्रदय में विचारों की लहरे उमड़ने लगी कि सभी रोगी भी होते हैं, वृद्ध भी होते है, और सन्यासी भी तथा एक दिन सभी को मरना भी है। जिस पर राजकुमार के मन मे विश्व के लोगो को इन बाधाओं से मुक्ति दिलाने की प्रबल प्रेरणा हुई। कुछ समय बाद राजकुमार सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा ने पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम राहुल रखा गया। राजकुमार के पुत्र होने के बाद उन्होंने गृह त्याग करने का निश्चय किया और एक दिन अर्ध रात को अपनी सोती हुई पत्नी और पुत्र को छोड़ कर अपने प्यारे घोड़े छन्दक पर बैठ कर अपने सहचर छंद के साथ राजभवन से निकल अनोमा नदी के तट पर जाकर अपने वस्त्र और आभूषण उतार के छंद को दे दिए और उसे राजभवन लोटा दिया। तब सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी। उसके बाद राजकुमार ने अनेक प्रख्यात आचार्यो के आश्रमो में निवास किया,लेकिन उनकी जिज्ञासा शांत नही हुई और अंत मे उन्होंने बोधगया में कठोर 6 वर्ष तक योग व अन्न शयन की भीषण तपस्या की। तप करते-करते उनका शरीर क्षीण होने लगा, शक्ति का हास होने लगा तब उन्होंने शरीर को कष्ट देना व्यर्थ समझकर सुजाता का पायस ग्रहण करके बोधिवृक्ष के नीचे आसन लगा कर तप करने लगे जहां उन्हें बोध प्राप्त हुआ। तब वह बुद्ध कहलाये। गौतम बुद्ध ने काशी के निकट सारनाथ में अपना प्रथम उपदेश चतुरवर्गीय भिक्षुओ को किया आगे जाकर अनेक विद्वानों, तपस्वियों और नरेशो को अपने मत की दीक्षा दी। दीक्षित भिक्षुओ के लिए "विहारों" की स्थापना की, पुरुष भिक्षुओ के अलावा तथागत बुद्ध ने स्त्रीयों को भी भिक्षुणी होने का अधिकार दिया। विहारों के नियमादि स्वयं बुद्ध ने उपदेशित किये थे। गौतम बुद्ध जब बोध प्राप्ति के बाद प्रथम बार कपिलवस्तु लौटे तब उनकी पत्नी यशोधरा ने उनसे दीक्षा ग्रहण की। उनके पुत्र राहुल भी सद्धर्ममे दीक्षित हुआ और राजकुल के सभी लोगो सहित महाराज सुद्धोदन तब कहा कि:

धर्म शरणं गच्छामि।
संघं शरमं गच्छामि।
बुद्ध शरमं गच्छामि।

 गौतम बुद्ध ने जिस तत्व-ज्ञान का उपदेश दिया वह चार आर्य सत्य कहे गए-
1.सब कुछ क्षणिक और दु:ख रूप है।
2.संसार के क्षणिक पदार्थो की तृष्णा ही दु:खों का कारण है।
3.उपादान सहित तृष्णा का नाश होने से दुःखो का नाश होता है।
4.ह्रदय से अहंभाव और राग-द्वेष की सर्वथा निवर्ती होने पर निर्वाण-प्राप्ति होती है।
 बुद्ध ने साधना के आठ अंग बताएं जिन्हें अष्टांगमार्ग कहा जाता है-
1. सत्य विश्वास
2. नम्र वचन
3.उच्च लक्ष्य
4.सदाचरण
5.सद्गुणो में स्थिति
 6.बुद्धि का सद्पयोग
7.सदवर्ति
8.सद ध्यान
इन अष्टागमार्ग से साधना करनी चाइये। गौतम बुद्ध ने धर्म प्रचार के लिए अनेक प्रयत्न किए,अनेक कष्टों को सहन किया। बुद्ध ने 45 वर्ष तक धर्म प्रचार करने के बाद 80 वर्ष की आयु में 483 ई.पूर्व गौरखपुर से कुछ दूर कुशीनगर नामक स्थान पर निर्वाण प्राप्त किया। बुद्ध ने जीव दया और अहिंसा का सदैव उपदेश दिया, उनके अनुयायी भिक्षुसंघो तथा नरेशो ने उनके बौद्ध मत का विस्तृत अनेक देशों में प्रचार किया जिनमे श्रीलंका, चीन, मलेशिया,जापान प्रमुख देश है। बुद्ध की धारणा थी कि वह शाश्वत सनातन धर्म का ही उपदेश कर रहे है। उन्होंने मनुष्य को पशुता की और जाने वर्जित करके मानवता पर बल दिया। भगवान बुद्ध ने समाज में रहने वाले सभी नागरिको को सत्य, अंहिसा पर चलने का मार्ग दिखाया, उन्होने सभी प्रकार की सामाजिक बुराईयों से दूर रहने को कहा है, भगवान ने हमें सभी जीवो के प्रति दयाभाव का आचरण करने का सूत्र दिया है। भगवान ने मनुष्य को शीलवान बनने पर बल दिया क्योंकि शील की सुगंध चारो दिशाओं में फैलती है।

✍️ एडवोकेट विजयकुमार ओझा

Thursday, May 10, 2012

प्रथम गुरु है माँ माँ माँ माँ माँ

ज्ञातवास के समय यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था- पृथ्वी से भारी क्या है? तो युधिष्ठिर ने तुरंत जवाब दिया- पृथ्वी से भारी मां होती है। यह बिल्कुल सही उत्तर था। कारण, पृथ्वी तो सिर्फ दुनिया भर के भार का वहन करती है, लेकिन मां अपने बच्चों के दुख-दर्द, इच्छाओं-अनिच्छाओं, उनकी भूख-प्यास और उनके हर कार्यकलाप को न सिर्फ वहन करती है, बल्कि उसका निराकरण भी करती है। बच्चे को जरा सी चोट लगती है, तो दर्द मां को होता है। वहीं बच्चा खुश होता है, तो मां भी प्रफुल्लित हो जाती है। महर्षि दयानंद ने कहा था- जिस तरह माता संतानों को प्रेम देती है और उनका हित करना चाहती है, उस तरह और कोई नहीं करता। मां ममतामयी है, जीवनदायिनी है। वह विशाल हृदय व परोपकारी है। माता शब्द में न जाने कैसा माधुर्य है कि वह जिस शब्द में जा मिलता है, उसी में एक अपूर्व सरलता व हृदयग्राही प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। जैसे- धरती माता, भारत माता, गो माता..। मां की सेवा से बेटा कभी उऋण नहीं हो सकता। मां का प्रेम निस्स्वार्थ होता है। पुत्र की सेवा करते हुए मां यह नहीं सोचती कि बडा होकर उनके उपकारों का प्रतिफल मिलेगा। मां अपने बच्चे को संस्कारशील बनाने का पूरा यत्न करती है। उसमें स्नेह, वात्सल्य, त्याग, ममता और सेवाभाव अपने चरम पर होते हैं। वह बच्चे पर सर्वस्व निछावर कर देती है। वह उसे पाने में बडी वेदना का सामना करती है, पर प्रसन्नतापूर्वक सहन करती है। उसकी सारी पीडाओं की कालिख बच्चे के मुख पर एक मुस्कान देखकर धुल जाती है। मां सिर्फ देना जानती है, लेना नहीं। आज माता-पिता की सेवा लोग जीवित रहते हुए नहीं करते, लेकिन शरीर त्यागने के बाद श्राद्ध करते हैं। लेकिन वैदिक धर्म कहता है कि जीवित माता-पिता को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार श्रद्धा व प्रेम से पूर्ण करना श्राद्ध तथा उन्हें सदा तृप्त रखना ही तर्पण कहलाता है। मां का स्थान ईश्वर के बराबर है। क्योंकि ईश्वर ने मानवता के सृजन का उत्तरदायित्व मां को ही दिया है। इतना ही नहीं, माता अबोध शिशु का सम्यक पालन-पोषण कर उसे इस योग्य बनाती है कि वह विश्व संस्कृति के निर्माण में सहभागी बन सके। तैत्तिरीय ब्रšाण में मातृ देवो भव: कहकर मां की देवता की भांति पूजा करने की बात कही गई है। इसी प्रकार शतपथ ब्राšाण में माता को पहला गुरु माना गया है। छांदोग्य उपनिषद तो माता की महिमा के वर्णन में इतना आगे है कि उसमें कहा गया है कि स्वप्न में भी यदि मातृ-शक्ति के दर्शन हो जाएं, तो मनुष्य को समृद्धि की प्राप्ति होती है। मां की महिमा शब्दों में व्याख्यायित नहीं हो सकती। हम ईश्वर की वंदना करते हैं, तो सबसे पहले उसे मातृ-रूप में देखते हैं- त्वमेव माता च पिता त्वमेव..। जब भी हम कष्ट में होते हैं, तो मुंह से एक ही शब्द निकलता है- मां। बच्चे का पहला विद्यालय घर होता है और उसकी पहली गुरु मां ही होती है, जो उसके भीतर संस्कारों के बीज डालती है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि मां के ऋण से हम कभी उऋण नहीं हो सकते। उचित यह होगा कि हम तन-मन से अपनी मां की सेवा करें।

Sunday, April 22, 2012

माँ लक्ष्मी स्त्रोत


धन और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी की पूजा से जहां दरिद्रता का अंधेरा दूर होकर सुख समृद्धि का उजाला भरने वाली है। वहीं व्यावहारिक संदेश यह है कि जीवन में धन के साथ ज्ञान, विचार और बुद्धि बल भी जीवन से कलह, दु:ख और कष्टों को दूर करने के लिए अहम हैं। अगर आप भी जीवन से जुड़े किसी संताप, परेशानी या समस्याओं का सामना कर रहे हैं तो शाम के वक्त नियमित रूप से खासतौर पर शुक्रवार के दिन माता लक्ष्मी के इस स्त्रोत का पाठ जरूर करें - शाम को माता लक्ष्मी की सामान्य पूजा उपचारों गंध, अक्षत, फूल, फल, धूप और घी का दीप लगाने के बाद लक्ष्मी स्त्रोत का पाठ करें - नमस्तेस्तु महामाये श्री पीठे सुरपूजिते। शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मी नमोस्तुते।। नमस्ते गरुडारूढ़े कोलासुरभयंकरि। सर्वपापहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते।। सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयंकरि। सर्वदु:खहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते।। सिद्धिबुद्धिप्रदे देवी महालक्ष्मी भुक्ति- मुक्तिप्रदायिनी। मन्त्रपूते सदादेवी महालक्ष्मी नमोस्तुते।।

Wednesday, February 29, 2012

परिक्षा के समय ध्यान रखने योग्य बातेँ

परिक्षा के समय स्ट्रेस की वजह से कुछ याद नही रहता. भूलने लागता है. ऐसी शिकायत बहोतसे छात्र करते है. तो इस स्ट्रेस का क्या करना यह प्रश्न उपस्थीत होता है. इस वजह से छात्र और पालक दोनोने कुछ चिजे ध्यानमे रखना चाहिए. तनाव बढानेवाले व्यक्ती से बचे परिक्षा के समय पढाई करो, ऐसे करो, ये पढो, ये मत पढो, ऐसे बतानेवाले लोग अगर आपके आस- पास है तो आप उनसे बचे. खास कर ऐसे दोस्त जो हमेशा कहतेही रहते को मेरी पढाई नही हो रही है, कुछ याद नाही रह रहा है, इनसे तो जरूर बचे. अच्छा आहार आप क्या खाते हो इसपेभी आपका आरोग्य निर्भर है. उससे भी ज्यादा मनस्वास्थ के लिये भी अच्छा आहार लेना बहोत ज्यादा जरूरी है. मिठे या तेल के पदार्थ खाने से शारीरिक परेशानी होतीही है और साथ मे स्ट्रेस ही बढ सकता है. शक्कर से तो बचनाही है. आपको खूब पढना है तो प्रोटीन से भरपूर आहार ले. और व्यायाम जरूर करे. व्यायाम याने १० मिनिट चलना भी ठीक है. ब्रेक लिजिये पढाई के हर घन्टे के बाद १०-१५ मिनट का ब्रेक ले. उससमय शांत बैठिये. दोस्तोसे बाते करे. आपकी पढायी एकाग्रता से करने के लिये आपके दिमाग को आराम की जरूरत होती है. पर दोस्तो के साथ जो बाते हो वो परिक्षा के संबंध मे ना हो. हलके-फुल्के विषायोपर चर्चा करे. पर बहस ना करे. और ब्रेक भी ज्यादा लम्बा ना हो. अनुमान करे आपकी परिक्षा मे क्या सवाल पुछे जा सकते है इसका अनुमान करे. मनमेही उन सावालोके जवाब कैसे अच्छी तरह दे साकते है इसका अंदाजा ले. मनमेही सवाल-जवाब की रिविजन करनेस परिक्षा के समय टेन्शन नही आयेगा.

Tuesday, January 10, 2012

शिव पुजा मंत्र

भगवान भोलेनाथ की पूजा का संकल्प लेते समय इस मंत्र का उच्चारण करें. देवदेव महादेवनीलकण्ठ नमोऽस्तु ते | कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तव || तव प्रभावाद्देवेश ! निर्विघ्नेन भवेदिति | कामाद्याः शत्रवो मां वै पीडां कुर्वन्तु नैव हि || भगवान शंकर को स्नान समर्पण के दौरान इस मंत्र का उच्चारण करें. ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य सकम्भ सर्ज्जनीस्थो | वरुणस्य ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदनमासीद् || भगवान शिव का आवाहन इन मंत्रों के द्वारा करें. कैलासशिखरस्थं च पार्वतीपतिमुत्तमम् || यथोक्तरुपिणं शम्भुं निर्गुणं गुणरुपिणम् | पंचवक्त्रं दशभुजं त्रिनेत्रं वृषभध्वजम् || कर्पूरगौरं दिव्यांगगं चन्द्रमौलिं कपर्दिनम् | व्याघ्रचर्मोत्तरीयं च गजचर्माम्बरं शुभम् || वासुक्यादिपरीतांगं पिनाकाद्यायुधान्वितम् | सिद्धयोऽष्टौ च यस्याग्रे नृत्यन्तीह निरन्तरम् || जयजयेति शब्दैश्च सेवितं भक्तपुंजकैः | तेजसा दुस्सहेनैव दुर्लक्ष्यं देवसेवितम् || शरण्यं सर्वसत्त्वानां प्रसन्नमुखपंकजम् | वेदैः शास्त्रैर्यथागीतं विष्णुब्रह्मनुतं सदा || भक्तवत्सलमानन्दं शिवमावाहयाम्यहम् | भगवान भोलेनाथ को अर्घ्य प्रदान करते समय इस मंत्र का उच्चारण करें. रुपं देहि यशो देहि भोगं देहि च शंकर | भुक्तिमुक्तिफ़लं देहि गृहीत्वार्घ्यं नमोऽस्तु ते || इस मंत्र के द्वारा भगवान शिवजी को बिल्वपत्र समर्पण करना चाहिए . दर्शनं बिल्वपत्रस्य स्पर्शनं पापनाशनम् | अघोरपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ||

भैरव सिध्दी साधना

काल भैरव साधना
1. काल भैरव भगवान शिव का अत्यन्त ही उग्र
तथा तेजस्वी स्वरूप है.
2. सभी प्रकार के पूजन/हवन/प्रयोग में रक्षार्थ
इनका पुजन होता है.
3. ब्रह्मा का पांचवां शीश खंडन भैरव ने
ही किया था.
4. इन्हे काशी का कोतवाल माना जाता है.
5. नीचे लिखे मन्त्र की १०८
माला रात्रि को करें.
6. काले रंग का वस्त्र तथा आसन रहेगा.
7. दिशा दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें
8. इस साधना से भय का विनाश होता है
तथा साह्स का संचार होता है.
9. यह तन्त्र बाधा, भूत बाधा,तथा दुर्घटना से
रक्षा प्रदायक है.
॥ ऊं भ्रं कालभैरवाय फ़ट ॥

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हिन्दु धर्म ने ही विश्व को सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया

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