Monday, April 25, 2011

Navagraha Stuti नवग्रहस्तोत्रम्

नवग्रहस्तोत्रम्
जपाकुसुमसंकाशं काश्र्यपेयं
महाद्युतिम् ।
तमोरिं सर्वपापघ्नं
प्रणतोsस्ति दिवाकरम् ॥१॥
I pay homage to the Sun, the
bright shining One, the
maker of the day, enemy of
darkness, destroyer of
evils, resembling a Chinese
rose, descendent of
Kashyapa. [1]
दधिशङ्कतुषाराभं
क्षीरोदार्णवसम्भवम् ।
नमामि शशिनं सोमं
शम्भोर्मुकुटभूषणम् ॥२॥
I pay homage to the Moon,
Soma, who serves as an
ornament on Shiva’s crown,
who was born from the ocean
of milk and whose color is
that of curd, conch, or snow.
[2]
धरणीगर्भसंभूतं
विद्युत्कान्तिसमप्रभम् ।
कुमारं शक्तिहस्तं तं मङ्गलं
प्रणमाम्यहम् ॥३॥
I pay homage to Mangala, the
handsome youth with weapon
in hand, born from mother
earth, whose luster
resembles the lightning in the
sky. [3]
प्रियङ्गुकुलिकाश्र्यामं
रूपेणाप्रतिमं बुधम् ।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं
प्रणमाम्यहम् ॥४॥
I pay homage to Budha, son
of the Moon, resembling the
dark green bud of the
priyangu flower, unrivaled in
beauty, of calm and collected
disposition. [4]
देवानां च ऋषीणां च गुरूं
काञ्चनसंनिभम् ।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं
नमामि बृहस्पतिम् ॥५॥
I pay homage to Brhaspati,
the guru of gods and rishis,
who shines with golden
luster, the embodiment of
cosmic intelligence, the
guiding light of the three
worlds. [5]
हिमकुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं
गुरूम् ।
सर्वशास्त्रप्रवक्तरं भार्गवं
प्रणमाम्यहम् ॥६॥
I pay homage to Shukra,
descendant of Bhrigu, the
supreme guru of the demons,
the greatest expounder of
all shastras, whose
complexion resembles the
white lotus, the jasmine
flower, or snow. [6]
निलाञ्जनसमाभासं रविपुत्रं
यमाग्रजम् ।
छायामार्तणडसम्भूतं तं
नमामि शनैश्र्वरम् ॥७॥
I pay homage to Shani, the
slowmoving, son of the Sun,
born from Chaya
and Martanda, Yama’s elder
brother, who is of dark
complexion like the blue eye
ointment. [7]
अर्धकायं महावीर्यं
चन्द्रादित्यविमर्दनम् ।
सिंहिकागर्भसम्भूतं तं राहुं
प्रणमाम्यहम् ॥८॥
I pay homage to Rahu, the
half-bodied one, offspring of
Simhika, possessing great
strength, the sworn enemy
of the Sun and Moon. [8]
पलाशपुष्पसंकाशं
तारकाग्रहमस्तकम् ।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं
प्रणमाम्यहम् ॥९॥
I pay homage to Ketu, one of
the eleven Rudras, chief
among planets and
stars, resembling the
palasha flower, and of
dreadful appearance. [9]
इति व्यासमुखोद् गीतं य: पठेत्
सुसमाहित: ।
दिवा वा यदि वा रात्रौ विघ्नशान्तिर्भविष्यति ॥
१०॥
Thus ends the hymn of
praise to the nine planets,
born from Vyasa ’s mouth as
assembled by him. For one
who chants this hymn,
whether by day or night, all
obstructions will melt away.
[10]
नानारीनृपाणां च
भवेद्दु :स्वप्ननाशनम् ।
ऐश्वर्यमतुलं तेषामारोग्यं
पुष्टिवर्धनम् ॥११॥
Whether for men, women, or
kings, it brings them
destruction of evil, unrivaled
sovereignty, freedom from
disease, and growth of
strength. [11]
ग्रहनक्षत्रजा:
पीडास्तस्कराग्नसमुद्भवा: ।
ता: सर्वा: प्रशमं
यान्ति व्यासो ब्रूते न संशय: ॥
१२॥
All afflictions born of the
planets, stars, thieves, or
fire will be removed. Vyasa
tells us that there is no
doubt about this. [12]
॥ इति व्यासविरचितं
नवग्रहस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

मन की शक्ति

मौन मन की वह आदर्श अवस्था है ,
जिसमें डूबकर मनुष्य परम
शांति का अनुभव करता है । मन
की चंचलता समाप्त होते हुवे
ही मौन की दिव्य अनुभूति होने
लगती है । मौन मन
को ऊर्ध्वमुखी बनाता है
तथा इसकी गति को दिशा-विशेष
में तीव्र कर देता है । जप-
साधना करने वाले के लिए मौन एक
अनिवार्य शर्त है। मौन चुप बने
रहना नहीं है , बल्कि अनावश्यक
विचारों से मुक्ति पाना है । मन
को उच्छ्र्न्खल एवं उन्मत्त होने
देना अच्छा नहीं है । मन जब
भी सीमाएं लांघता है
तो वाणी वाचाल हो उठती है ।
क्योंकि और मन का सम्बन्ध
अग्नि और तपन के समान है । मन
और वाणी के प्रवाह को नियंत्रित
करना कठिन है । अनियंत्रित
वाणी के दुष-प्रभाव से कौन
परिचित नहीं है ? अधिक
बोलना व्यक्तित्व पर ग्रहण लगने
के समान है । आवश्यकता से अधिक
बोलना _ शिष्टता ,
शालीनता और मर्यादाओं
का उल्लंघन करना होता है । इससे
मानसिक -शक्तियाँ दुर्बल
होती हैं । मौन में मन:शक्ति सहज
और उर्वर होती है और सृजनशील
विचारों को ग्रहण करती हैं ।
मों द्वारा वाणी पर नियंत्रण
लगाया जा सकता है और इससे मन
प्रशांत रहता है । प्रशांत मन
मानसिक शक्तियों का द्वार-
देहरी होता है । सिद्ध पुरुष मन
की इस महत्ता को जगाते हुवे
सार्थक वचन बोलते हैं और
जो मन्त्र के समान
प्रभावोत्पादक होते हैं ।
मौन महर्षि रमणके जीवन में रचा-
बसा था । उन्होंने जीवन
का अधिकांश भाग मौन रहकर
गुजरा । वे मौन रहकर भी उपदेश
देते थे और पास आने
वालों की समस्याओं का समाधान
करते थे । मौन मनुष्य
की ही नहीं सम्पूर्ण
प्रकृति की अमोघ शक्ति है ।
प्रकृति का क्षण-क्षण अखंड
महामौन से व्याप्त है ।
जो प्रकृति के नियम का उल्लंघन
करता है , वह अपनी मानसिक
शक्तियों से वंचित रह जाता है ।
सृष्टि में फैले सभी तत्वों में व्याप्त
अखंड मौन के एक अंश
को भी यदि आत्मसात
किया जा सके तो समझना चाहिए
की हम अपपनी गुप्त शक्तियों के
स्वामी बनने की राह पर आ गये हैं
। मौन के वृक्ष पर शांति के फल
लगते हैं । मौन कभी हमारे साथ
विश्वासघात नहीं करेगा । मौन
और एकांत आत्मा के सर्वोत्तम
मित्र हैं ।

Thursday, April 21, 2011

जैसा अन्न वैसा मन

एक साधु ग्रामानुग्राम विचरण
करते हुए जा रहे थे और एक गांव में प्रवेश करते
ही शाम हो गई। ग्रामसीमा पर स्थित पहले
ही घर में आश्रय मांगा ,वहां एक पुरुष था जिसने
रात्री विश्राम की अनुमति दे दी। और भोजन
के लिये भी कहा। साधु भोजन कर बरामदे में
पडी खाट पर सो गया। चौगान में
गृहस्वामी का सुन्दर हृष्ट पुष्ट
घोडा बंधा था। साधु सोते हुए उसे निहारने
लगा। साधु के मन में दुर्विचार नें डेरा जमाया ,
‘यदि यह घोडा मेरा हो जाय
तो मेरा ग्रामानुग्राम विचरण सरल हो जाय’।
वह सोचने लगा , जब
गृहस्वामी सो जायेगा आधी रात को मैं
घोडा लेकर चुपके से चल पडुंगा। कुछ ही समय
बाद गृहस्वामी को सोया जानकर , साधु
घोडा ले उडा।
कोई एक कोस जाने पर साधु ,पेड
से घोडा बांधकर सो गया। प्रातः उठकर उसने
नित्यकर्म निपटाया और वापस घोडे के पास
आते हुए उसके विचारों ने फ़िर गति पकडी - ‘अरे!
मैने यह क्या किया? एक साधु होकर मैने
चोरी की? यह कुबुद्धि मुझे क्योंकर सुझी?’ उसने
घोडा गृहस्वामी को वापस लौटाने का निश्चय
किया और उल्टी दिशा में चल पडा।
उसी घर में पहूँच कर गृहस्वामी से
क्षमा मांगी और घोडा लौटा दिया। साधु नें
सोचा कल मैने इसके घर का अन्न खाया था ,
कहीं मेरी कुबुद्धि का कारण इस घर का अन्न
तो नहीं ?, जिज्ञासा से उस
गृहस्वामी को पूछा- 'आप काम क्या करते
है,आपकी आजिविका क्या है?' अचकाते हुए
गृहस्वामी नें, साधु जानकर सच्चाई बता दी-
‘महात्मा मैं चोर हूँ,और चोरी करके
अपना जीवनयापन करता हूँ’। साधु का समाधान
हो गया , चोरी से उपार्जित अन्न का आहार
पेट में जाते ही उस के मन में कुबुद्धि पैदा हो गई
थी। जो प्रातः नित्यकर्म में उस अन्न के
निहार हो जाने पर ही सद्बुद्धि वापस
लौटी।
नीति-अनीति से उपार्जित आहार
का प्रभाव प्रत्यक्ष था।

Friday, April 15, 2011

!! गायत्री मंत्र का रहस्य !!

समस्त विद्याओं
की भण्डागार-
गायत्री महाशक्ति
ॐ र्भूभुवः स्वः
तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः
प्रचोदयात्
गायत्री संसार के समस्त
ज्ञान-विज्ञान
की आदि जननी है ।
वेदों को समस्त प्रकार
की विद्याओं का भण्डार
माना जाता है, वे वेद
गायत्री की व्याख्या मात्र
हैं ।
गायत्री को 'वेदमाता'
कहा गया है । चारों वेद
गायत्री के पुत्र हैं ।
ब्रह्माजी ने अपने एक-एक
मुख से गायत्री के एक-एक
चरण की व्याख्या करके
चार वेदों को प्रकट
किया ।
'ॐ भूर्भवः स्वः' से-
ऋग्वेद,
'तत्सवितुर्वरेण्यं' से-
यर्जुवेद,
'भर्गोदेवस्य धीमहि'
से-सामवेद और
'धियो योनः
प्रचोदयात्' से अथर्ववेद
की रचना हुई ।
इन वेदों से शास्त्र,
दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ,
आरण्यक, सूत्र, उपनिषद्,
पुराण,
स्मृति आदि का निर्माण
हुआ । इन्हीं ग्रन्थों से
शिल्प, वाणिज्य, शिक्षा,
रसायन, वास्तु, संगीत
आदि ८४ कलाओं
का आविष्कार हुआ । इस
प्रकार गायत्री, संसार
के समस्त ज्ञान-विज्ञान
की जननी ठहरती है ।
जिस प्रकार बीज के
भीतर वृक्ष तथा वीर्य
की एक बूंद के भीतर
पूरा मनुष्य सन्निहित
होता है, उसी प्रकार
गायत्री के २४ अक्षरों में
संसार का समस्त ज्ञान-
विज्ञान भरा हुआ है । यह
सब गायत्री का ही अर्थ
विस्तार है ।
मंत्रों में शक्ति होती है ।
मंत्रों के अक्षर
शक्ति बीज कहलाते हैं ।
उनका शब्द गुन्थन
ऐसा होता है कि उनके
विधिवत् उच्चारण एवं
प्रयोग से अदृश्य आकाश
मण्डल में
शक्तिशाली विद्युत् तरंगें
उत्पन्न होती हैं, और
मनःशक्ति तरंगों द्वारा नाना प्रकार
के आध्यात्मिक एवं
सांसारिक प्रयोजन पूरे
होते हैं ।
साधारणतः सभी विशिष्ट
मंत्रों में यही बात
होती है । उनके शब्दों में
शक्ति तो होती है, पर
उन शब्दों का कोई विशेष
महत्वपूर्ण अर्थ
नहीं होता । पर
गायत्री मंत्र में यह बात
नहीं है । इसके एक-एक
अक्षर में अनेक प्रकार के
ज्ञान-विज्ञानों के
रहस्यमय तत्त्व छिपे हुए
हैं । 'तत्-सवितुः -
वरेण्यं-' आदि के स्थूल अर्थ
तो सभी को मालूम है एवं
पुस्तकों में छपे हुए हैं । यह
अर्थ भी शिक्षाप्रद हैं ।
परन्तु इनके अतिरिक्त ६४
कलाओं, ६ शास्त्रों, ६
दर्शनों एवं ८४ विद्याओं के
रहस्य प्रकाशित करने
वाले अर्थ भी गायत्री के
हैं । उन अर्थों का भेद
कोई-कोई
अधिकारी पुरुष ही जानते
हैं । वे न तो छपे हुए हैं और
न सबके लिये प्रकट हैं ।
इन २४ अक्षरों में आर्युवेद
शास्त्र भरा हुआ है । ऐसी-
ऐसी दिव्य औषधियों और
रसायनों के बनाने
की विधियाँ इन
अक्षरों में संकेत रूप से
मौजूद हैं जिनके
द्वारा मनुष्य असाध्य
रोगों से निवृत्त
हो सकता है, अजर-अमर
तक बन सकता है । इन २४
अक्षरों में सोना बनाने
की विधा का संकेत है । इन
अक्षरों में अनेकों प्रकार
के आग्नेयास्त्र,
वरुणास्त्र,
नारायणास्त्र,
पाशुपतास्त्र,
ब्रह्मास्त्र
आदि हथियार बनाने के
विधान मौजूद हैं । अनेक
दिव्य शक्तियों पर
अधिकार करने
की विधियों के विज्ञान
भरे हुए हैं । ऋद्धि-
सिद्धियों को प्राप्त
करने, लोक-लोकान्तरों के
प्राणियों से सम्बन्ध
स्थापित करने,
ग्रहों की गतिविधि तथा प्रभाव
को जानने, अतीत
तथा भविष्य से परिचित
होने, अदृश्य एवं
अविज्ञात
तत्त्वोंको हस्तामलकवत्
देखने आदि अनेकों प्रकार
के विज्ञान मौजूद हैं ।
जिकी थोड़ी सी भी जानकारी मनुष्य
प्राप्त करले तो वह
भूलोक में रहते हुए
भी देवताओं के समान
दिव्य शक्तियों से
सुसम्पन्न बन सकता है ।
प्राचीन काल में
ऐसी अनेक विद्याएँ हमारे
पूर्वजों को मालूम
थीं जो आज लुप्त
प्रायः हो गई हैं । उन
विद्याओं के कारण हम एक
समय जगद्गुरु,
चक्रवर्ती शासक एवं
स्वर्ग-सम्पदाओं के
स्वामी बने हुए थे । आज हम
उनसे वञ्चित होकर दीन-
हीन बने हुए हैं ।
‍आवश्यकता इस बात की है
कि गायत्री महामन्त्र में
सन्निहित उन लुप्तप्राय
महाविद्याओं को खोज
निकाला जाय, जो हमें
फिर से स्वर्ग- सम्पदाओं
का स्वामी बना सके । यह
विषय सर्वसाधारण
का नहीं है । हर एक
का इस क्षेत्र में प्रवेश
भी नहीं है ।
अधिकारी सत्पात्र
ही इस क्षेत्र में कुछ
अनुसंधान कर सकते हैं और
उपलब्ध प्रतिफलों से
जनसामान्य
को लाभान्वित करा सकते
हैं ।
गायत्री के
दोनों ही प्रयोग हैं । वह
योग भी है और तन्त्र भी ।
उससे आत्म-दर्शन और
ब्रह्मप्राप्ति भी होती है
तथा सांसारिक
उपार्जन-संहार भी ।
गायत्री-योग दक्षिण
मार्ग है- उस मार्ग से
हमारे आत्म-कल्याण
का उद्देश्य पूरा होता है

‍दक्षिण मार्ग का आधार
यह है कि-
विश्वव्यापी ईश्वरीय
शक्तियों को आध्यात्मिक
चुम्बकत्व से खींच कर अपने
में धारण किया जाय,
सतोगुण को बढ़ाया जाय
और अन्तर्जगत् में अवस्थित
पञ्चकोष , सप्त प्राण,
चेतना चतुष्टय, षटचक्र
एवं अनेक उपचक्रों,
मातृकाओं, ग्रन्थियों,
भ्रमरों, कमलों,
उपत्यिकाओं को जागृत
करके आनन्ददायिनी =
अलौकिक
शक्तियों का आविर्भाव
किया जाय ।
गायत्री-तन्त्र वाम
मार्ग है- उससे सांसारिक
वस्तुएँ प्राप्त
की जा सकती हैं और
किसी का नाश
भी किया जा सकता है ।
वाम मार्ग का आधार यह
है कि-'' दूसरे प्राणियों के
शरीरों में निवास करने
वाली शक्ति को इधर से
उधर हस्तान्तरित करके
एक जगह विशेष मात्रा में
शक्ति संचित कर ली जाय
और उस
शक्ति का मनमाना उपयोग
किया जाय । ''
तन्त्र का विषय गोपनीय
है , इसलिए
गायत्री तन्त्र के
ग्रन्थों में
ऐसी अनेकों साधनाएँ
प्राप्त होती हैं, जिनमें
धन, सन्तान, स्त्री, यश,
आरोग्य, पदप्राप्ति,
रोग-निवारण, शत्रु नाश,
पाप-नाश, वशीकरण
आदि लाभों का वर्णन है
और संकेत रूप से उन
साधनाओं का एक अंश
बताया गया है । परन्तु
यह भली प्रकार स्मरण
रखना चाहिये कि इन
संक्षिप्त संकेतों के पीछे
एक भारी कर्मकाण्ड एवं
विधिविधान है । वह
पुस्तकों में नहीं वरन्
अनुभवी साधना सम्पन्न
व्यक्तियों से प्राप्त
होता है, जिन्हें सद्गुरु
कहते हैं ।

Thursday, April 14, 2011

शक्ति मंत्र

कभी-
कभी जिंदगी ऐसी मुश्किलों से घिर
जाती है कि समझ
नहीं आता ऐसी परेशानियों से
कैसा निपटा जाए ? मुसीबतों से
निपटने के लिए तो हर
व्यक्ति संघर्ष करता है लेकिन कई
बार इंसान ऐसी परिस्थितियों में
अपने आप को शक्तिहीन महसूस करने
लगता है। यदि आपके साथ
भी यही समस्या है। आप संघर्ष
करते-करते थक चूके हैं लगने लगा है
कि आपकी किस्मत आपका साथ
नहीं दे रही है ऐसे में सिर्फ मंत्र
शक्ति ही ऐसी शक्ति है
जो आपको स्थिति से लडऩे
की ताकत दे सकती है। मंत्र
शक्ति के द्वारा हर
परेशानी का हल संभव है। अगर
आपकी किस्मत साथ ना दे और
आपका हौंसला जवाब देने लगे
तो नीचे लिखे मंत्र का जप करें। इस
मंत्र के जप से आपको आंतरिक
शक्ति मिलेगी। मंत्र इस प्रकार है
-
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते
सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये
नारायणि नमोस्तुते।

नई पोस्ट

हिन्दु धर्म ने ही विश्व को सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया

____________________________________________ हिन्दू-धर्मका हित-साधन प्रकार ही विश्वके समस्त धर्मों एवं वर्गोसे भिन्न है। यहाँ किसीको हिन्दू ...