Thursday, May 10, 2012

प्रथम गुरु है माँ माँ माँ माँ माँ

ज्ञातवास के समय यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था- पृथ्वी से भारी क्या है? तो युधिष्ठिर ने तुरंत जवाब दिया- पृथ्वी से भारी मां होती है। यह बिल्कुल सही उत्तर था। कारण, पृथ्वी तो सिर्फ दुनिया भर के भार का वहन करती है, लेकिन मां अपने बच्चों के दुख-दर्द, इच्छाओं-अनिच्छाओं, उनकी भूख-प्यास और उनके हर कार्यकलाप को न सिर्फ वहन करती है, बल्कि उसका निराकरण भी करती है। बच्चे को जरा सी चोट लगती है, तो दर्द मां को होता है। वहीं बच्चा खुश होता है, तो मां भी प्रफुल्लित हो जाती है। महर्षि दयानंद ने कहा था- जिस तरह माता संतानों को प्रेम देती है और उनका हित करना चाहती है, उस तरह और कोई नहीं करता। मां ममतामयी है, जीवनदायिनी है। वह विशाल हृदय व परोपकारी है। माता शब्द में न जाने कैसा माधुर्य है कि वह जिस शब्द में जा मिलता है, उसी में एक अपूर्व सरलता व हृदयग्राही प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। जैसे- धरती माता, भारत माता, गो माता..। मां की सेवा से बेटा कभी उऋण नहीं हो सकता। मां का प्रेम निस्स्वार्थ होता है। पुत्र की सेवा करते हुए मां यह नहीं सोचती कि बडा होकर उनके उपकारों का प्रतिफल मिलेगा। मां अपने बच्चे को संस्कारशील बनाने का पूरा यत्न करती है। उसमें स्नेह, वात्सल्य, त्याग, ममता और सेवाभाव अपने चरम पर होते हैं। वह बच्चे पर सर्वस्व निछावर कर देती है। वह उसे पाने में बडी वेदना का सामना करती है, पर प्रसन्नतापूर्वक सहन करती है। उसकी सारी पीडाओं की कालिख बच्चे के मुख पर एक मुस्कान देखकर धुल जाती है। मां सिर्फ देना जानती है, लेना नहीं। आज माता-पिता की सेवा लोग जीवित रहते हुए नहीं करते, लेकिन शरीर त्यागने के बाद श्राद्ध करते हैं। लेकिन वैदिक धर्म कहता है कि जीवित माता-पिता को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार श्रद्धा व प्रेम से पूर्ण करना श्राद्ध तथा उन्हें सदा तृप्त रखना ही तर्पण कहलाता है। मां का स्थान ईश्वर के बराबर है। क्योंकि ईश्वर ने मानवता के सृजन का उत्तरदायित्व मां को ही दिया है। इतना ही नहीं, माता अबोध शिशु का सम्यक पालन-पोषण कर उसे इस योग्य बनाती है कि वह विश्व संस्कृति के निर्माण में सहभागी बन सके। तैत्तिरीय ब्रšाण में मातृ देवो भव: कहकर मां की देवता की भांति पूजा करने की बात कही गई है। इसी प्रकार शतपथ ब्राšाण में माता को पहला गुरु माना गया है। छांदोग्य उपनिषद तो माता की महिमा के वर्णन में इतना आगे है कि उसमें कहा गया है कि स्वप्न में भी यदि मातृ-शक्ति के दर्शन हो जाएं, तो मनुष्य को समृद्धि की प्राप्ति होती है। मां की महिमा शब्दों में व्याख्यायित नहीं हो सकती। हम ईश्वर की वंदना करते हैं, तो सबसे पहले उसे मातृ-रूप में देखते हैं- त्वमेव माता च पिता त्वमेव..। जब भी हम कष्ट में होते हैं, तो मुंह से एक ही शब्द निकलता है- मां। बच्चे का पहला विद्यालय घर होता है और उसकी पहली गुरु मां ही होती है, जो उसके भीतर संस्कारों के बीज डालती है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि मां के ऋण से हम कभी उऋण नहीं हो सकते। उचित यह होगा कि हम तन-मन से अपनी मां की सेवा करें।

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