कपिलवस्तु जो नेपाल में स्थित था उसके राजा शुद्धोदन की पत्नी मायादेवी जब अपने मायके जा रही थी तो उसी समय कपिलवस्तु के कुछ मील दूर लुम्बिनी नामक स्थान पर उनके गर्भ से 563 ई.पूर्व में एक सुलक्षण तेजोमय पुत्र हुआ जिसका नाम रखा गया सिद्धार्थ। लेकिन जन्म एक सप्ताह बाद ही उसकी माता मायादेवी का देहांत हो गया तब राजकुमार का लालन-पालन उनकी विमाता गौतमीदेवी ने किया। राजकुमार सिद्धार्थ के जन्म पर ज्योतिषीयो ने भविष्यवाणी की थी कि राजकुमार या तो गृह त्यागकर वीतरागी अतिविख्यात महापुरुष होगा या चक्रवर्ती सम्राट। इस भविष्यवाणी से महाराज बहुत चिंतित रहने लगे कि कही राजकुमार विरक्त होकर गृह त्याग नहीं कर ले। इसी लिए महाराज ने महल में पूरी व्यवस्था कर रखी थी कि राजकुमार सिद्धार्थ के सम्मुख दुःख, शोक, पीड़ा, वृद्धावस्था, मृत्यु पीड़ा आदी कभी नही आये। आनंद, उल्लास, राज-रोग ही उनके चारो और बना रहे। सिद्धार्थ ने अपनी प्रतिभा से बहुत कम समय मे ही विद्याध्ययन पूर्ण कर ली। विद्याध्ययन सम्पूर्ण होने के बाद महाराज ने सिद्धार्थ का विवाह राजकुमारी यशोधरा के साथ कर दिया। विवाह के कुछ समय बाद से राजकुमार एकांत में व विचारमग्न रहने लगे। तब एक दिन राजकुमार के ह्रदय मे अपने नगर की यात्रा करने की तीव्र इच्छा प्रकट हुई तब राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने पिता महाराज से नगर यात्रा पर जाने के लिए कहा तो महाराज ने व्यवस्था की कि सम्पूर्ण नगर में कोई अप्रिय दृश्य राजकुमार के सामने प्रकट ना हो। लेकिन महाराज द्वारा सम्पूर्ण व्यवस्था करने के बाद भी राजकुमार को प्रथम यात्रा में एक वृद्ध व्यक्ति दिखाई दिया,द्वितीय यात्रा में एक रोगी व्यक्ति, तृतीय यात्रा में एक शव दिखाई दिया और चतुर्थ यात्रा में एक सन्यासी दिखा। जिस पर राजकुमार के ह्रदय में विचारों की लहरे उमड़ने लगी कि सभी रोगी भी होते हैं, वृद्ध भी होते है, और सन्यासी भी तथा एक दिन सभी को मरना भी है। जिस पर राजकुमार के मन मे विश्व के लोगो को इन बाधाओं से मुक्ति दिलाने की प्रबल प्रेरणा हुई। कुछ समय बाद राजकुमार सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा ने पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम राहुल रखा गया। राजकुमार के पुत्र होने के बाद उन्होंने गृह त्याग करने का निश्चय किया और एक दिन अर्ध रात को अपनी सोती हुई पत्नी और पुत्र को छोड़ कर अपने प्यारे घोड़े छन्दक पर बैठ कर अपने सहचर छंद के साथ राजभवन से निकल अनोमा नदी के तट पर जाकर अपने वस्त्र और आभूषण उतार के छंद को दे दिए और उसे राजभवन लोटा दिया। तब सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी। उसके बाद राजकुमार ने अनेक प्रख्यात आचार्यो के आश्रमो में निवास किया,लेकिन उनकी जिज्ञासा शांत नही हुई और अंत मे उन्होंने बोधगया में कठोर 6 वर्ष तक योग व अन्न शयन की भीषण तपस्या की। तप करते-करते उनका शरीर क्षीण होने लगा, शक्ति का हास होने लगा तब उन्होंने शरीर को कष्ट देना व्यर्थ समझकर सुजाता का पायस ग्रहण करके बोधिवृक्ष के नीचे आसन लगा कर तप करने लगे जहां उन्हें बोध प्राप्त हुआ। तब वह बुद्ध कहलाये। गौतम बुद्ध ने काशी के निकट सारनाथ में अपना प्रथम उपदेश चतुरवर्गीय भिक्षुओ को किया आगे जाकर अनेक विद्वानों, तपस्वियों और नरेशो को अपने मत की दीक्षा दी। दीक्षित भिक्षुओ के लिए "विहारों" की स्थापना की, पुरुष भिक्षुओ के अलावा तथागत बुद्ध ने स्त्रीयों को भी भिक्षुणी होने का अधिकार दिया। विहारों के नियमादि स्वयं बुद्ध ने उपदेशित किये थे। गौतम बुद्ध जब बोध प्राप्ति के बाद प्रथम बार कपिलवस्तु लौटे तब उनकी पत्नी यशोधरा ने उनसे दीक्षा ग्रहण की। उनके पुत्र राहुल भी सद्धर्ममे दीक्षित हुआ और राजकुल के सभी लोगो सहित महाराज सुद्धोदन तब कहा कि:
धर्म शरणं गच्छामि।
संघं शरमं गच्छामि।
बुद्ध शरमं गच्छामि।
गौतम बुद्ध ने जिस तत्व-ज्ञान का उपदेश दिया वह चार आर्य सत्य कहे गए-
1.सब कुछ क्षणिक और दु:ख रूप है।
2.संसार के क्षणिक पदार्थो की तृष्णा ही दु:खों का कारण है।
3.उपादान सहित तृष्णा का नाश होने से दुःखो का नाश होता है।
4.ह्रदय से अहंभाव और राग-द्वेष की सर्वथा निवर्ती होने पर निर्वाण-प्राप्ति होती है।
बुद्ध ने साधना के आठ अंग बताएं जिन्हें अष्टांगमार्ग कहा जाता है-
1. सत्य विश्वास
2. नम्र वचन
3.उच्च लक्ष्य
4.सदाचरण
5.सद्गुणो में स्थिति
6.बुद्धि का सद्पयोग
7.सदवर्ति
8.सद ध्यान
इन अष्टागमार्ग से साधना करनी चाइये। गौतम बुद्ध ने धर्म प्रचार के लिए अनेक प्रयत्न किए,अनेक कष्टों को सहन किया। बुद्ध ने 45 वर्ष तक धर्म प्रचार करने के बाद 80 वर्ष की आयु में 483 ई.पूर्व गौरखपुर से कुछ दूर कुशीनगर नामक स्थान पर निर्वाण प्राप्त किया। बुद्ध ने जीव दया और अहिंसा का सदैव उपदेश दिया, उनके अनुयायी भिक्षुसंघो तथा नरेशो ने उनके बौद्ध मत का विस्तृत अनेक देशों में प्रचार किया जिनमे श्रीलंका, चीन, मलेशिया,जापान प्रमुख देश है। बुद्ध की धारणा थी कि वह शाश्वत सनातन धर्म का ही उपदेश कर रहे है। उन्होंने मनुष्य को पशुता की और जाने वर्जित करके मानवता पर बल दिया। भगवान बुद्ध ने समाज में रहने वाले सभी नागरिको को सत्य, अंहिसा पर चलने का मार्ग दिखाया, उन्होने सभी प्रकार की सामाजिक बुराईयों से दूर रहने को कहा है, भगवान ने हमें सभी जीवो के प्रति दयाभाव का आचरण करने का सूत्र दिया है। भगवान ने मनुष्य को शीलवान बनने पर बल दिया क्योंकि शील की सुगंध चारो दिशाओं में फैलती है।
✍️ एडवोकेट विजयकुमार ओझा
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