Tuesday, May 17, 2011

चाणक्य नीति अध्याय एकादश

दोहा-- दानशक्ति प्रिय
बोलिबो, धीरज उचित विचार ।
ये गुण सीखे ना मिलैं, स्वाभाविक हैं
चार ॥१॥
दानशक्ति, मीठी बात करना,
धैर्य धारण करना, समय पर उचित
अनुचित का निर्णय करना, ये चार
गुण स्वाभाविक सिध्द हैं । सीखने
से नहीं आते ॥१॥
दोहा -- वर्ग आपनो छोडि के, गहे
वर्ग जो आन ।
सो आपुई नशि जात है, राज अधर्म
समान ॥२॥
जो मनुष्य अपना वर्ग छोडकर
पराये वर्ग में जाकर मिल जाता है
तो वह अपने आप नष्ट हो जाता है
। जैसे अधर्म से राजा लोग चौपट
हो जाते हैं ॥२॥
सवैया- भारिकरी रह अंकुश के वश
का वह अंकुश भारी करीसों ।
त्यों तम पुंजहि नाशत
दीपसो दीपकहू अँधियार
सरीसों ॥
वज्र के मारे गिरे गिरिहूँ कहूँ होय
भला वह वज्र गिरोसों ।
तेज है जासु सोई बलवान
कहा विसवास शरीर लडीसों ॥३॥
हाथी मोटा -ताजा होता है,
किन्तु अंकुश के वश में रहता है
तो क्या अंकुश हाथी के बराबर है ?
दीपक के जल जाने पर अन्धकार दूर
हो जाता है तो क्या अन्धकार के
बराबर दीपक है ? इन्द्र के
वज्रप्रहार से पहाड गिर जाते हैं
तो क्या वज्र उन पर्वतों के
बराबर है ? इसका मतलब यह
निकला कि जिसमें तेज है,
वही बलवान् है यों मोटा-
ताजा होने से कुछ नहीं होता ॥३॥
दोहा -- दस हजार बीते बरस,
कलि में तजि हरि देहि ।
तासु अर्ध्द सुर नदी जल , ग्रामदेव
अधि तेहि ॥४॥
कलि के दस हजार वर्ष बीतने पर
विष्णु भगवान् पृथ्वी छोड देते हैं ।
पांच हजार वर्ष बाद गंगा का जल
पृथ्वी को छोड देता है और उसके आधे
यानी ढाई हजार वर्ष में
ग्रामदेवता ग्राम छोडकर चलते
बनते हैं ॥४॥
दोहा -- विद्या गृह आसक्त को,
दया मांस जे खाहिं ।
लोभहिं होत न सत्यता,
जारहिं शुचिता नाहिं ॥५॥
गृहस्थी के जंजाल में फँसे
व्यक्ति को विद्या नहीं आती मांसभ
ोजी के हृदय में
दया नहीं आती लोभी के पास
सचाई नहीं आती और कामी पुरुष के
पास पवित्रता नहीं आती ॥५॥
दोहा -- साधु दशा को नहिं गहै,
दुर्जन बहु सिंखलाय ।
दूध घीव से सींचिये , नीम न
तदपि मिठाय ॥६॥
दुर्जन व्यक्ति को चाहे
कितना भी उपदेश क्यों न
दिया जाय वह
अच्छी दशा को नहीं पहूँच सकता ।
नीम के वृक्ष को , चाहे जड से लेकर
सिर तक घी और दुध से ही क्यों न
सींचा जाय फिर भी उसमें मीठापन
नहीं आ सकता ॥६॥
दोहा -- मन मलीन खल तीर्थ ये,
यदि सौ बार नहाहिं ।
होयँ शुध्द नहिं जिमि सुरा, बासन
दीनेहु दाहिं ॥७॥
जिसके हृदय में पाप घर कर चुका है,
वह सैकडों बार तीर्थस्नान करके
भी शुध्द नहीं हो सकता । जैसे
कि मदिरा का पात्र अग्नि में
झुलसने पर भी पवित्र
नहीं होता ॥७॥
चा० छ० -- जो न जानु उत्तमत्व
जाहिके गुण गान की ।
निन्दतो सो ताहि तो अचर्ज कौन
खान की ॥
ज्यों किरति हाथि माथ
मोतियाँ विहाय कै ।
घूं घची पहीनती विभूषणै बनाय कै
॥६॥
जो जिसके गुणों को नहीं जानता,
वह उसकी निन्दा करता रहता है
तो इसमें आश्चर्य की कोई बात
नहीं है । देखो न , जंगल
की रहनेवाली भिलनी हाथी के
मस्तक की मुक्ता को छोडकर घुँ
घची ही पहनती है ॥८॥
दोहा -- जो पूरे इक बरस भर, मौन
धरे नित खात ।
युग कोटिन कै सहस तक, स्वर्ग
मांहि पूजि जात ॥९॥
जो लोग केवल एक वर्ष तक, मौन
रहकर भोजन करते हैं वे दश हजार
बर्ष तक स्वर्गवासियों से
सम्मानित होकर स्वर्ग में निवास
करते हैं ॥९॥
सोरठा -- काम क्रोध अरु स्वाद,
लोभ श्रृड्गरहिं कौतुकहि ।
अति सेवन निद्राहि ,
विद्यार्थी आठौतजे ॥१०॥
काम , क्रोध, लोभ, स्वाद,
श्रृड्गर, खेल-तमाशे, अधिक नींद
और किसी की अधिक सेवा,
विद्यार्थी इन आठ
कामों को त्याग दे । क्योंकी ये आठ
विद्याध्ययन में बाधक हैं ॥१०॥
दोहा -- बिनु जोते महि मूल फल,
खाय रहे बन माहि ।
श्राध्द करै जो प्रति दिवस,
कहिय विप्र ऋषि ताहि ॥११॥
जो ब्राह्मण बिना जोते बोये फल
पर जीवन बिताता , हमेशा बन में
रहना पसन्द करता और प्रति दिन
श्राध्द करता है , उस विप्र
को ऋषि कहना चाहिए ॥११॥
सोरठा -- एकै बार अहार, तुष्ट
सदा षटकर्मरत ।
ऋतु में प्रिया विहार, करै वनै
सो द्विज कहै ॥१२॥
जो ब्राह्मण केवल एक बार के
भोजन से सन्तुष्ट रहता और यज्ञ,
अध्ययन दानादि षट्कर्मों में
सदा लीन रहता और केवल ऋतुकाल
में स्त्रीगमन करता है , उसे द्विज
कहना चाहिए ॥१२॥
सोरठा -- निरत लोक के कर्म, पशु
पालै बानिज करै ।
खेती में मन कर्म करै, विप्र
सो वैश्य है ॥१३॥
जो ब्राह्मण सांसारिक धन्धों में
लगा रहता और पशु पालन करता ,
वाणिज्य व्यवसाय
करता या खेती ही करता है, वह
विप्र वैश्य कहलाता है ॥१३॥
सोरठा -- लाख आदि मदमांसु, घीव
कुसुम अरु नील मधु ।
तेल बेचियत तासु शुद्र, जानिये
विप्र यदि ॥१४॥
जो लाख , तेल, नील कुसुम, शहद,
घी, मदिरा और मांस बेचता है, उस
ब्राह्मण को शुद्र-ब्राह्मण कहते
हैं ॥१४॥
सोरठा -- दंभी स्वारथ सूर, पर
कारज घालै छली ।
द्वेषी कोमल क्रूर , विप्र बिलार
कहावते ॥१५॥
जो औरों का काम बिगाडता,
पाखण्डपरायण रहता,
अपना मतलब साधने में तत्पर रहकर
छल , आदि कर्म करता ऊपर से
मीठा, किन्तु हृदय से क्रूर
रहता ऎसे ब्राह्मण को मार्जार
विप्र कहा जाता है ॥१५॥
सोरठा -- कूप बावली बाग औ
तडाग सुरमन्दिरहिं ।
नाशै जो भय त्यागि , म्लेच्छ विप्र
कहाव सो ॥१६॥
जो बावली , कुआँ, तालाब,
बगीचा और देवमन्दिरों के नष्ट
करने में नहीं हिचकता , ऎसे
ब्राह्मण को ब्राह्मण न कहकर
म्लेच्छ कहा जाता है ॥१६॥
सोरठा -- परनारी रत जोय,
जो गुरु सुर धन को हरै ।
द्विज चाण्डालहोय ,
विप्रश्चाण्डाल उच्यते ॥१७॥
जो देवद्रव्य और गुरुद्रव्य अपहरण
करता , परायी स्त्री के साथ
दुराचार करता और
लोगों की वृत्ति पर
ही जो अपना निर्वाह करता है,
ऎसे ब्राह्मण को चाण्डाल
कहा जाता है ॥१७॥
सवैया -- मतिमानको चाहिये वे
धन भोज्य सुसंचहिं नाहिं दियोई
करैं
ते बलि विक्रम कर्णहु कीरति ,
आजुलों लोग कह्योई करैं ॥
चिरसंचि मधु हम लोगन को बिनु
भोग दिये नसिबोई करैं ।
यह जानि गये मधुनास दोऊ
मधुमखियाँ पाँव घिसोई करैं ॥१८॥
आत्म -कल्याण
की भावनावालों को चाहिये
कि अपनी साधारण आवश्यकता से
अधिक बचा हुआ अन्न वस्त्र या धन
दान कर दिया करें , जोडे नहीं ।
दान ही की बदौलत कर्ण बलि और
महाराज विक्रमादित्य
की कीर्ति आज भी विद्यमान है ।
मधुमक्खियों को देखिये वे
यही सोचती हुई अपने पैर
रगडती हैं कि "हाय ! मैंने दान और
भोग से रहित मधु को बहुत दिनों में
इकट्ठा किया और वह क्षण में
दुसरा ले गया " ॥१८॥
इति चाणक्ये एकदशोऽध्यायः ॥
११॥

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