Monday, May 16, 2011

चाणक्य नीति अध्याय दशमं

दोहा-- हीन नहीं धन हीन है, धन
थिर नाहिं प्रवीन ।
हीन न और बखानिये , एइद्याहीन
सुदीन ॥१॥
धनहीन मनुष्य हीन
नहीं कहा जा सकता वही वास्तव
में धनी है । किन्तु जो मनुष्य
विद्यारुपी रत्न से हीन है , वह
सभी वस्तुओं से हीन है ॥१॥
दोहा -- दृष्टिसोधि पग धरिय
मग, पीजिय जल पट रोधि ।
शास्त्रशोधि बोलिय बचन, करिय
काज मन शोधि ॥२॥
आँख से अच्छी तरह देख-भाल कर पैर
धरे, कपडे से छान कर जल पिये,
शास्त्रसम्मत बात कहे और मन
को हमेशा पवित्र रखे ॥२॥
दोहा -- सुख चाहै विद्या तजै सुख
तजि विद्या चाह ।
अर्थिहि को विद्या कहाँ,
विद्यार्थिहिं सुख काह ॥३॥
जो मनुष्य विषय सुख चाहता हो,
वह विद्या के पास न जाय ।
जो विद्या का इच्छुक हो , वह सुख
छोडे । सुखार्थी को विद्या और
विद्यार्थी को सुख कहाँ मिल
सकता है ॥३॥
दोहा -- काह न जाने सुकवि जन,
करै काह नहिं नारि ।
मद्यप काह न बकि सकै, काग
खाहिं केहि वारि ॥४॥
कवि क्या वस्तु नहीं देख पाते ?
स्त्रियाँ क्या नहीं कर सकतीं ?
शराबी क्या नहीं बक जाते ? और
कौवे क्या नहीं खा जाते ? ॥॓॥
छं० -- बनवै अति रंकन
भूमिपती अरु भूमिपतीनहुँ रंक
अति ।
धनिकै धनहीन फिरै करती अधनीन
धनी विधिकेरि गती ॥५॥
विधाता कड्गाल को राजा ,
राजा को कड्गाल,
धनी को निर्धन और निर्धन
को धनी बनाता ही रहता है ॥५॥
दोहा -- याचक रिपु लोभीन के,
मूढनि जो शिषदान ।
जार तियन निज पति कह्यो,
चोरन शशि रिपु जान ॥६॥
लोभी का शत्रु है याचक , मूर्ख
का शत्रु है उपदेश देनेवाला,
कुलटा स्त्री का शत्रु है
उसका पति और चोरों का शत्रु
चन्द्रमा ॥६॥
दोहा -- धर्मशील गुण नाहिं जेहिं,
नहिं विद्या तप दान ।
मनुज रूप भुवि भार ते , विचरत मृग
कर जान ॥७॥
जिस मनुष्य में न विद्या है, न तप
है, न शील है और न गुण है ऎसे मनुष्य
पृथ्वी के बोझ रूप होकर मनुष्य रूप
में पशु सदृश जीवन -यापन करते हैं ॥
७॥
सोरठा-- शून्य हृदय उपदेश,
नाहिं लगै कैसो करिय ।
बसै मलय गिरि देश , तऊ बांस में
बास नहिं ॥८॥
जिनकी अन्तरात्मा में कुछ भी असर
नहीं करता । मलयाचल
को किसी का उपदेश कुछ असर
नहीं करता । मलयाचल के संसर्ग से
और वृक्ष चन्दन हो जाते हैं , पर
बाँस चन्दन नहीं होता ॥८॥
दोहा -- स्वाभाविक
नहिं बुध्दि जेहि, ताहि शास्त्र
करु काह ।
जो नर नयनविहीन हैं, दर्पण से करु
काह ॥९॥
जिसके पास स्वयं बुध्दि नहीं है, उसे
क्या शास्त्र सिखा देगा ।
जिसकी दोनों आँखे फूट गई हों,
क्या उसे शीशा दिखा देगा ? ॥९॥
दोहा-- दुर्जन को सज्जन करन,
भूतल नहीं उपाय ।
हो अपान इन्द्रिय न शचि,
सौ सौ धोयो जाय ॥१०॥
इस पृथ्वीतल में दुर्जन को सज्जन
बनाने का कोई यत्न है ही नहीं ।
अपान प्रदेश को चाहे सैकडों बार
क्यों न धोया जाय फिर भी वह
श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं हो सकता ॥
१०॥
दोहा-- सन्त विरोध ते मृत्यु
निज, धन क्षय करि पर द्वेष ।
राजद्वेष से नसत है, कुल क्षय कर
द्विज द्वेष ॥११॥
बडे बूढो से द्वेष करने पर मृत्यु
होती है । शत्रु से द्वेष करने पर
धन का नाश होता है । राजा से
द्वेष करने पर सर्वनाश
हो जाता है और ब्राह्मण से द्वेष
करने पर कुल का ही क्षय
हो जाता है ॥११॥
छन्द -- गज बाघ सेवित वृक्ष धन
वन माहि बरु रहिबो करै ।
अरु पत्र फल जल सेवनो तृण सेज वरु
लहिबो करै ॥
शतछिद्र वल्कल वस्त्र करिबहु
चाल यह गहिबो करै ।
निज बन्धू महँ धनहीन ह्वैं
नहिं जीवनो चहिबो करै ॥१२॥
बाघ और बडॆ -बडॆ हाथियों के झुण्ड
जिस वन में रहते हो उसमें
रहना पडे , निवास करके पके फल
तथा जल पर जीवनयापन करना पड
जाय , घास फूस पर सोना पडे और
सैकडो जगह फटे वस्त्र पहनना पडे
तो अच्छा पर अपनी विरादरी में
दरिद्र होकर जीवन
बिताना अच्छा नहीं है ॥१२॥
छ्न्द -- विप्र वृक्ष हैं मूल
सन्ध्या वेद शाखा जानिये ।
धर्म कर्म ह्वै पत्र दोऊ मूल
को नहिं नाशिये ॥
जो नष्ट मूल ह्वै जाय तो कुल शाख
पात न फूटिये ।
यही नीति सुनीति है की मल
रक्षा कीजिये ॥१३॥
ब्राह्मण वृक्ष के समान है,
उसकी जड है संध्या, वेद है
शाखा और कर्म पत्ते हैं । इसलिए
मूल (सन्ध्या) की यत्न पूर्वक
रक्षा करो । क्योंकी जब जड
ही कट जायगी तो न
शाखा रहेगी और न पत्र
ही रहेगा ॥१३॥
दोहा -- लक्ष्मी देवी मातु हैं,
पिता विष्णु सर्वेश ।
कृष्णभक्त बन्धू सभी , तीन भुवन
निज देश ॥१४॥
भक्त मनुष्य की माता हैं
लक्ष्मीजी , विष्णु भगवान
पिता हैं , विष्णु के भक्त भाई बन्धु
हैं और तीनों भुवन उसका देश है ॥
१४॥
दोहा -- बहु विधि पक्षी एक तरु,
जो बैठे निशि आय ।
भोर दशो दिशि उडि चले, कह
कोही पछिताय ॥१५॥
विविध वर्ण (रंग) के पक्षी एक
ही वृक्ष पर रात भर बसेरा करते हैं
और दशों दिशाओं में उड जाते हैं ।
यही दशा मनुष्यॊं की भी है , फिर
इसके लिये सन्ताप करने
की क्या जरूरत ? ॥१५॥
दोहा-- बुध्दि जासु है सो बली,
निर्बुध्दिहि बल नाहिं ।
अति बल हाथीहिं स्यारलघु, चतुर
हतेसि बन माहिं ॥१६॥
जिसके पास बुध्दि है उसी के पास
बल है , जिसके बुध्दि ही नहीं उसके
बल कहाँ से होगा । एक जंगल में एक
बुध्दिमान् खरगोश ने एक मतवाले
हाथी को मार डाला था ॥१६॥
छन्द -- है नाम हरिको पालक मन
जीवन शंका क्यों करनी ।
नहिं तो बालक जीवन कोथन से पय
निरस तक्यों जननी ॥
यही जानकर बार है
यदुपति लक्ष्मीपते तेरे ।
चरण कमल के सेवन से दिन बीते जायँ
सदा मेरे ॥१७॥
यदि भगवान् विश्वंभर कहलाते हैं
तो हमें अपने जीवन
सम्बन्धी झंझटो (अन्न-वस्त्र आदि)
की क्या चिन्ता ? यदि वे
विश्वंभर न होते तो जन्म के पहले
ही बच्चे को पीने के लिए माता के
स्तन में दूध कैसे उतर आता । बार -
बार इसी बात को सोचकर हे
यदुपते ! हे लक्ष्मीपते ! मैं केवल आप
के चरणकमलों की सेवा करके
अपना समय बिताता हूँ ॥१७॥
सो० -- देववानि बस बुध्दि, तऊ
और भाषा चहौं ।
यदपि सुधा सुर देश, चहैं अवस सुर
अधर रस ॥१८॥
यद्यपि मैं देववाणी में विशेष
योग्यता रखता हूँ , फिर
भी भाषान्तर का लोभ है ही । जैसे
स्वर्ग में अमृत जैसी उत्तम वस्तु
विद्यमान है फिर भी देवताओं
को देवांगनाओं के अधरामृत पान
करने की रुचि रहती ही है ॥१८॥
दोहा -- चूर्ण दश गुणो अन्न ते,
ता दश गुण पय जान ।
पय से अठगुण मांस ते तेहि दशगुण घृत
मान ॥१९॥
खडे अन्न की अपेक्षा दसगुना बल
रहता है पिसान में । पिसान से
दसगुना बल रहता है दूध में । दूध से
अठगुना बल रहता है मांस से
भी दसगुना बल है घी में ॥१९॥
दोहा -- राग बढत है शाकते, पय से
बढत शरीर ।
घृत खाये बीरज बढे, मांस मांस
गम्भीर ॥२०॥
शाक से रोग , दूध से शरीर, घी से
वीर्य और मांस से मांस
की वृध्दि होती है ॥२०॥
इति चाणक्ये दशमिऽध्यायः ॥१०॥

No comments:

Post a Comment

नई पोस्ट

हिन्दु धर्म ने ही विश्व को सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया

____________________________________________ हिन्दू-धर्मका हित-साधन प्रकार ही विश्वके समस्त धर्मों एवं वर्गोसे भिन्न है। यहाँ किसीको हिन्दू ...