Tuesday, May 17, 2011

चाणक्य नीति अध्याय त्रयोदश

दोहा- वरु नर जीवै मुहूर्त भर, करिके
शुचि सत्कर्म ।
नहिं भरि कल्पहु लोक दुहुँ, करत विरोध अधर्म
॥१॥
मनुष्य यदि उज्वल कर्म करके एक दिन
भी जिन्दा रहे तो उसका जीवन सुफल है । इसके
बदले इहलोक और परलोक इन दोनों के विरुध्द
कार्य करके कल्प भर जिवे तो वह
जीना अच्छा नहीं है ॥१॥
दोहा-- गत वस्तुहि सोचै नहीं, गुनै न
होनी हार ।
कार्य करहिं परवीन जन आय परे अनुसार ॥२॥
जो बात बीत गयी उसके लिए सोच न करो और
न आगे होनेवाली के ही लिए चिन्ता करो ।
समझदार लोग सामने की बात को ही हल करने
की चिन्ता करते हैं ॥२॥
दोहा-- देव सत्पुरुष औ पिता, करहिं सुभाव
प्रसाद ।
स्नानपान लहि बन्धु सब, पंडित पाय सुवाद ॥
३॥
देवता, भलेमानुष और बाप ये तीन स्वभाव देखकर
प्रसन्न होते हैं । भाई वृन्द स्नान और पान से
साथ वाक्य पालन से पण्डित लोग खुश होते है ॥
३॥
दोहा-- आयुर्दल धन कर्म औ, विद्या मरण
गनाय ।
पाँचो रहते गर्भ में जीवन के रचि जाय ॥४॥
आयु, कर्म, सम्पत्ति, विद्या और मरण ये पाँच
बातें तभी तै हो जाती हैं, जब कि मनुष्य गर्भ में
ही रहता है ॥४॥
दोहा-- अचरज चरित विचित्र अति, बडे जनन
के आहि ।
जो तृण सम सम्पति मिले, तासु भार नै जाहिं ॥
५॥
ओह ! महात्माओं के चरित्र भी विचित्र होते हैं
। वैसे तो ये लक्ष्मी को तिनके की तरह समझते हैं
और जब वह आ ही जाती है तो इनके भार से
दबकर नम्र हो जाते हैं ॥५॥
दोहा-- जाहि प्रीति भय ताहिंको,
प्रीति दुःख को पात्र ।
प्रीति मूल दुख त्यागि के, बसै तबै सुख मात्र ॥
६॥
जिसके हृदय में स्नेह (प्रीति) है, उसीको भय है
। जिसके पास स्नेह है, उसको दुःख है । जिसके
हृदय में स्नेह है, उसी के पास तरह-तरह के दुःख
रहते हैं, जो इसे त्याग देता है वह सुख से
रहता है ॥६॥
दोहा-- पहिलिहिं करत उपाय जो, परेहु तुरत
जेहि सुप्त ।
दुहुन बढत सुख मरत जो, होनी गुणत अगुप्त ॥
७॥
जो मनुष्य भविष्य में आनेवाली विपत्तिसे
होशियार है और जिसकी बुध्दि समय पर काम
कर जाती है ये दो मनुष्य आनंद से आगे बढते जाते
हैं । इनके विपरीत जो भाग्य में
लिखा होगा वह होगा, जो यह सोचकर
बैठनेवाले हैं, इनका नाश निश्चित है ।
दोहा-- नृप धरमी धरमी प्रजा, पाप पाप
मति जान ।
सम्मत सम भूपति तथा, परगट प्रजा पिछान ॥
८॥
राजा यदि धर्मात्मा होता तो उसकी प्रजा भी धर्मात्मा होती है,
राजा पापी होता है
तो उसकी प्रजा भी पापी होती है, सम
राजा होता है तो प्रजा भी सम होती है ।
कहने का भाव यह कि सब राजा का ही अनुसरण
करते है । जैसा राजा होगा,
उसकी प्रजा भी वैसी होगी ॥८॥
दोहा-- जीवन ही समुझै मरेउ, मनुजहि धर्म
विहीन ।
नहिं संशय निरजीव सो, मरेउ धर्म जेहि कीन ॥
९॥
धर्मविहीन मनुष्य को मैं जीते मुर्दे की तरह
मानता हुँ । जो धर्मात्मा था, पर मर
गया तो वह वास्तव में दीर्घजीवी था ॥९॥
दोहा-- धर्म, अर्थ, अरु, मोक्ष, न एको है जासु

अजाकंठ कुचके सरिस, व्यर्थ जन्म है तासु ॥१०॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों में
से एक पदार्थ भी जिसके पास नहीं है,
तो बकरी के गले में लटकनेवाले स्तनों के समान
जन्म ही निरर्थक है ॥१०॥
दोहा-- और अगिन यश दुसह सो,
जरि जरि दुर्जन नीच ।
आप न तैसी करि सकै, तब तिहिं निन्दहिं बीच
॥११॥
नीच प्रकृति के लोग औरों के यशरूपी अग्नि से
जलते रहते हैं उस पद तक तो पहुँचने की सामर्थ्य
उनमें रहती नहीं । इसलिए वे
उसकी निन्दा करने लग जाते हैं ॥११॥
दोहा-- विषय संग परिबन्ध है, विषय हीन
निर्वाह ।
बंध मोक्ष इन दुहुन को कारण मनै न आन ॥१२॥
विषयों में मन को, लगाना ही बन्धन है और
विषयों से मन को हटाना मुक्ति है । भाव यह
कि मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का हेतु
है ॥१२॥
दोहा-- ब्रह्मज्ञान सो देह को, विगत भये
अभिमान ।
जहाँ जहाँ मन जाता है, तहाँ समाधिहिं जान ॥
१३॥
परमात्माज्ञान से मनुष्य का जब देहाभिमान
गल जाता है तो फिर जहाँ कहीं भी उसका मन
जाता है तो उसके लिए सर्वत्र समाधि ही है ॥
१३॥
दोहा-- इच्छित सब सुख केहि मिलत, जब सब
दैवाधीन ।
यहि ते संतोषहिं शरण, चहै चतुर कहँ कीन ॥
१४॥
अपने मन के अनुसार सुख किसे मिलता है ।
क्योंकि संसार का सब काम दैव के अधीन है ।
इसीलिए जितना सुख प्राप्त हो जाय, उतने में
ही सन्तुष्ट रहो ॥१४॥
दोहा-- जैसे धेनु हजार में, वत्स जाय लखि मात

तैसे ही कीन्हो करम, करतहि के ढिग जात ॥
१५॥
जैसे हजारों गौओं में बछडा अपनी ही माँ के पास
जाता है । उसा तरह प्रत्येक मनुष्य का कर्म
(भाग्य) अपने स्वामी के ही पास जा पहुँचता है
॥१५॥
दोहा-- अनथिर कारज ते न सुख, जन औ वन दुहुँ
माहिं ।
जन तेहि दाहै सङ्ग ते, वन असंग ते दाहि ॥
१६॥
जिसका कार्य अव्यवस्थित रहता है, उसे न
समाज में सुख है, न वन में । समाज में वह संसर्ग से
दुःखी रहता है तो वन में संसर्ग त्याग से
दुखी रहेगा ॥१६॥
दोहा-- जिमि खोदत ही ते मिले, भूतल के
मधि वारि ।
तैसेहि सेवा के किये, गुरु विद्या मिलि धारि ॥
१७॥
जैसे फावडे से खोदने पर पृथ्वी से जल निकल
आता है । उसी तरह किसी गुरु के पास
विद्यमान विद्या उसकी सेवा करने से प्राप्त
हो जाती है ॥१७॥
दोहा-- फलासिधि कर्म अधीन है, बुध्दि कर्म
अनुसार ।
तौहू सुमति महान जन, करम करहिं सुविचार ॥
१८॥
यद्यपि प्रत्येक मनुष्य को कर्मानुसार फल
प्राप्त होता है और बुध्दि भी कर्मानुसार
ही बनती है । फिर भी बुध्दिमान् लोग
अच्छी तरह समझ-बूझ कर ही कोई काम करते हैं
॥१८॥
दोहा-- एक अक्षरदातुहु गुरुहि, जो नर बन्दे
नाहिं ।
जन्म सैकडों श्वान ह्वै, जनै चण्डालन माहिं ॥
१९॥
एक अक्षर देनेवाले को भी जो मनुष्य अपना गुरु
नहीं मानता तो वह सैकडों बार कुत्ते
की योनि में रह-रह कर अन्त में चाण्डाल
होता है ॥१९॥
दोहा-- सात सिन्धु कल्पान्त चलु, मेरु चलै युग
अन्त ।
परे प्रयोजन ते कबहुँ, नहिं चलते हैं सन्त ॥२०॥
युग का अन्त हो जाने पर सुमेरु पर्वत डिग
जाता है । कल्प का अन्त होने पर सातो सागर
भी चंचल हो उठते हैं, पर सज्जन लोग स्वीकार
किये हुए मार्ग से विचलित नहीं होते ॥२०॥
म० छ० - अन्न बारि चारु बोल तीनि रत्न भू
अमोल ।
मूढ लोग के पषान टूक रत्न के पषान ॥२१॥
सच पूछो तो पृथ्वी भर में तीन ही रत्न हैं--
अन्न, जल और मीठ-मीठी बातें । लेकिन बेवकूफ
लोग पत्थर के टुकडों को ही रत्न मानते हैं ॥
२१॥
इति चाणक्ये त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥

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