Saturday, May 14, 2011

चाणक्य नीति अध्याय सप्तम

दोहा-- अरथ नाश मन ताप अरु, दार चरित घर
माहिं ।
बंचनता अपमान निज, सुधी प्रकाशत नाहिं ॥
१॥
अपने धन का नाश, मन का सन्ताप,
स्त्रीका चरित्र, नीच मनुष्य की कही बात और
अपना अपमान, इनको बुध्दिमान मनुष्य
किसी के समक्ष जाहिर न करे ॥१॥
दोहा -- संचित धन अरु धान्य कूँ, विद्या सीखत
बार ।
करत और व्यवहार कूँ, लाज न करिय अगार ॥
२॥
धन -धान्यके लेन-देन, विद्याध्ययन, भोजन,
सांसारिक व्यवसाय, इन कामों में जो मनुष्य
लज्जा नहीं करता, वही सुखी रहता है ॥२॥
दोहा-- तृषित सुधा सन्तोष चित, शान्त लहत
सुख होय ।
इत उत दौडत लोभ धन, कहँ सो सुख तेहि होय ॥
३॥
सन्तोषरूपी अमृत से तृप्त मनुष्यों को जो सुख और
शांति प्राप्त होती है , वह धन के लोभ से इधर-
उधर मारे-मारे फिरने वालोंको कैसे प्राप्त
होगी ? ॥३॥
दोहा-- तीन ठौर सन्तोष धर, तिय भोजन धन
माहिं ।
दानन में अध्ययन में, तप में कीजे नाहिं ॥४॥
तीन बातों में सन्तोष धारण करना चाहिए ।
जैसे -अपनी स्त्री में, भोजन में और धन में ।
इसी प्रकार तीन बातों में कभी भी सन्तुष्ट न
होना चाहिए । अध्ययन में , जप में, और दान में ॥
४॥
दोहा-- विप्र विप्र अरु नारि नर, सेवक
स्वामिहिं अन्त ।
हला औ बैल के मध्यते, नहिं जावे सुखवन्त ॥५॥
दो ब्राह्मणों के बीच में से, ब्राह्मण और
अग्नि के बीच से, स्वामी और सेवक के बीच से,
स्त्री-पुरुष के बीच से और हल तथा बैल के बीच से
नहीं निकलना चाहिए ॥५॥
दोहा -- अनल विप्र गुरु धेनु पुनि,
कन्या कुँआरी देत ।
बालक के अरु वृध्द के, पग न लगावहु येत ॥६॥
अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गौ, कुमारी कन्या, वृध्द
और बालक इनको कभी पैरों से न छुए ॥६॥
दोहा -- हस्ती हाथ हजार तज, शत हाथन से
वाजि ।
श्रृड्ग सहित तेहि हाथ दश, दुष्ट देश तज
भाजि ॥७॥
हजार हाथ की दूरी से हाथी से, सौ हाथ
की दूरी से घोडा से, दस हाथ की दूरी से
सींगवाले जानवरों से बचना चाहिये और
मौका पड जाय तो देश को ही त्याग कर दुर्जन
से बचे ॥७॥
दोहा -- हस्ती अंकुश तैं हनिय, हाथ पकरि तुरंग

श्रृड्गि पशुन को लकुटतैं, असितैं दुर्जन भंग ॥८॥
हाथी अंकुश से, घोडा चाबुक से, सींगवाले
जानवर लाठी से और दुर्जन तलवार से ठीक होते
हैं ॥८॥
दोहा -- तुष्ट होत भोजन किये, ब्राह्मण
लखि धन मोर ।
पर सम्पति लखि साधु जन, खल लखि पर दुःख
घोर ॥९॥
ब्राह्मण भोजन से, मोर मेघ के गर्जन से, सज्जन
पराये धन से और खल मनुष्य दूसरे पर आई
विपत्ति से प्रसन्न होता है ॥९॥
दोहा -- बलवंतहिं अनुकूलहीं,
प्रतिकूलहिं बलहीन ।
अतिबलसमबल शत्रुको , विनय बसहि वश कीन ॥
१०॥
अपने से प्रबल शत्रु को उसके अनुकूल चल कर, दुष्ट
शत्रु को उसके प्रतिकूल चल कर और समान
बलवाले शत्रु का विनय और बल से
नीचा दिखाना चाहिए ॥१०॥
दोहा -- नृपहिं बाहुबल ब्राह्मणहिं, वेद ब्रह्म
की जान ।
तिय बल माधुरता कह्यो, रूप शील गुणवान ॥
११॥
राजाओं में बाहुबलसम्पन्न राजा और
ब्राह्मणों में ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण
बली होता है और रूप तथा यौवन
की मधुरता स्त्रियों का सबसे उत्तम बल है ॥
११॥
दोहा-- अतिहि सरल नहिं होइये, देखहु
जा बनमाहिं ।
तरु सीधे छेदत तिनहिं, वाँके तरु रहि जाति ॥
१२॥
अधिक सीधा-
साधा होना भी अच्छा नहीं होता । जाकर वन
में देखो --वहाँ सीधे वृक्ष काट लिये जाते हैं और
टेढे खडे रह जाते हैं ॥१२॥
दोहा -- सजल सरोवर हंस बसि, सूखत उडि है
सोउ ।
देखि सजल आवत बहुरि, हंस समान न होउ ॥
१३॥
जहाँ जल रहता है वहाँ ही हंस बसते हैं । वैसे
ही सूखे सरोवरको छोडते हैं और बार -बार
आश्रय लर लेते हैं । सो मनुष्य को हंस के समान न
होना चाहिये ॥१३॥
दोहा -- धन संग्रहको पेखिये, प्रगट दान
प्रतिपाल ।
जो मोरी जल जानकूँ, तब नहिं फूटत ताल ॥
१४॥
अर्जित धनका व्यय करना ही रक्षा है । जैसे
नये जल आने पर तडाग के भीतर के जल
को निकालना ही रक्षा है ॥१४॥
दोहा -- जिनके धन तेहि मीत बहु, जेहि धन बन्धु
अनन्त ।
घन सोइ जगमें पुरुषवर, सोई जन जीवन्त ॥१५॥
जिनके धन रहता है उसके मित्र होते हैं, जिसके
पास अर्थ रहता है उसीके बंधू होते हैं । जिसके
धन रहता है वही पुरुष गिना जाता है , जिसके
अर्थ है वही जीत है ॥१५॥
दोहा -- स्वर्गवासि जन के सदा, चार चिह्न
लखि येहि ।
देव विप्र पूजा मधुर, वाक्य दान करि देहि ॥
१६॥
संसार में आने पर स्वर्ग स्थानियों के शरीर में
चार चिह्म रहते हैं , दान का स्वभाव,
मीठा वचन, देवता की पूजा, ब्राह्मण को तृप्त
करना अर्थात् जिन लोगों में दान आदि लक्षण
रहे उनको जानना चाहिये कि वे अपने पुण्य के
प्रभाव से स्वर्गवासी मृत्यु लोक में अवतार
लिये हैं ॥१६॥
दोहा -- अतिहि कोप कटु वचनहूँ, दारिद नीच
मिलान ।
स्वजन वैर अकुलिन टहल, यह षट नर्क निशान ॥
१७॥
अत्यन्त क्रोध, कटुवचन, दरिद्रता, अपने
जनों में बैर, नीचका संग, कुलहीनकी सेवा, ये
चिह्म नरकवासियोंकी देहों में रहते हैं ॥१७॥
दोहा -- सिंह भवन यदि जाय कोउ,
गजमुक्ता तहँ पाय ।
वत्सपूँछ खर चर्म टुक, स्यार माँद हो जाय ॥
१८॥
यदि कोई सिंह की गुफा में जा पडे
तो उसको हाथी के कपोलका मोती मिलता है,
और सियार के स्थान में जाने पर बछावे की पूँछ
और गदहे के चामडे का टुकडा मिलता है ॥१८॥
दोहा -- श्वान पूँछ सम जीवनी, विद्या बिनु है
व्यर्थ ।
दशं निवारण तन ढँकन, नहिं एको सामर्थ ॥
१९॥
कुत्ते की पूँछ के समान
विद्या बिना जीना व्यर्थ है । कुत्ते की पूँछ
गोप्य इन्द्रिय को ढाँक नहीं सकती और न
मच्छड आदि जीवॊम को उडा सकती है ॥१९॥
दोहा -- वचन्शुध्दि मनशुध्दि और, इन्द्रिय
संयम शुध्दि ।
भूतदया और स्वच्छता, पर अर्थिन यह बुध्दि ॥
२०॥
वच की शुध्दि, मति की शुध्दि,
इंद्रियों का संयम, जीवॊं पर दया और
पवित्रता--ये परमार्थितों की शुध्दि है ॥
२०॥
दोहा-- बास सुमन, तिल तेल, अग्नि काठ पय
घीव ।
उखहिं गुड तिमि देह में तेल, आतम लखु मतिसीव
॥२१॥
जैसे फलमें गंध, तिल में तेल, काष्ठमें आग, दूध में
घी और ईख में गुड है वैसे देह में आत्मा को विचार
से देखो ॥२१॥
इति चाणक्ये सप्तमोऽध्यायः ॥७॥

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