Friday, February 11, 2011

॥ श्री सरस्वती चालीसा ॥

जय श्रीसकल बुद्घि बलरासी ।
जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी ॥
जय जय जय वीणाकर धारी ।
करती सदा सुहंस सवारी ॥
रुप चतुर्भुज धारी माता ।
सकल विश्व अन्दर
विख्याता ॥
जग में पाप बुद्घि जब
होती । तबहि धर्म
की फीकी ज्योति ॥
तबहि मातु का निज अवतारा ।
पाप हीन करती महितारा ॥
बाल्मीकि जी थे हत्यारा ।
तव प्रसाद जानै संसारा ॥
रामचरित जो रचे बनाई ।
आदि कवि पदवी को पाई ॥
कालिदास जो भये विख्याता ।
तेरी कृपा दृष्टि से माता ॥
तुलसी सूर आदि विद्घाना ।
और भये जो ज्ञानी नाना ॥
तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा ।
केवल कृपा आपकी अमबा ॥
करहु कृपा सोई मातु भवानी ।
दुखित दीन निज
दासहिं जानी ॥
पुत्र करइ अपराध बहूता ।
तेहि न धरइ चित एकउ माता ॥
राखु लाज जननी अब मेरी ।
विनय करउं भांति बहुतेरी ॥
मैं अनाथ तेरी अवलंबा ।
कृपा करउ जय जय जगदम्बा ॥
मधुकैटभ जो अति बलवाना ।
बाहुयुद्घ विष्णु से
ठाना ॥
समर हजार पांच में घोरा ।
फिर भी मुख उनसे
नहीं मोरा ॥
मातु सहाय कीन्ह
तेहि काला । बुद्घि विपरीत
भई खलहाला ॥
तेहि ते मृत्यु भई खल
केरी । पुरवहु मातु मनोरथ
मेरी ॥
चण्ड मुण्ड जो थे
विख्याता । क्षण महु संहारे
उन माता ॥
रक्तबीज से समरथ पापी । सुर
मुन हृदय धरा सब कांपी ॥
काटेउ सिर जिम कदली खम्बा ।
बार बार बिनवउं जगदंबा ॥
जगप्रसिद्घ जो शुंभ
निशुंभा । क्षण में बांधे
ताहि तूं अम्बा ॥
भरत-मातु बुद्घि फेरेउ जाई
। रामचन्द्र बनवास कराई ॥
एहि विधि रावन वध तू
कीन्हा । सुन नर
मुनि सबको सुख दीन्हा ॥
को समरथ तव यश गुन गाना ।
निगम अनादि अनंत बखाना ॥
विष्णु रुद्र जस सकैं न
मारी । जिनकी हो तुम
रक्षाकारी ॥
रक्त दन्तिका और शताक्षी ।
नाम अपार है दानवभक्षी ॥
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा ।
दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा ॥
दुर्ग आदि हरनी तू माता ।
कृपा करहु जब जब सुखदाता ॥
नृप कोपित को मारन चाहै ।
कानन में घेरे मृग नाहै ॥
सागर मध्य पोत के भंगे ।
अति तूफान नहिं कोऊ संगे ॥
भूत प्रेत बाधा या दुःख में
। हो दरिद्र अथवा संकट में

नाम जपे मंगल सब होई । संशय
इसमें करइ न कोई ॥
पुत्रहीन जो आतुर भाई । सबै
छांड़ि पूजें एहि भाई ॥
करै पाठ नित यह चालीसा ।
होय पुत्र सुन्दर गुण ईसा ॥
धूपादिक नैवेघ चढ़ावै ।
संकट रहित अवश्य हो जावै ॥
भक्ति मातु की करै हमेशा ।
निकट न आवै ताहि कलेशा ॥
बंदी पाठ करै सत बारा ।
बंदी पाश दूर हो सारा ॥
रामसागर बांधि हेतु भवानी ।
कीजै कृपा दास निज जानी ॥
॥ दोहा ॥
मातु सूर्य कान्त तव,
अन्धकार मम रुप ।
डूबन से रक्षा करहु परुं न
मैं भव कूप ॥
बलबुद्घि विघा देहु मोहि,
सुनहु सरस्वती मातु ।
रामसागर अधम को आश्रय तू दे
दातु ॥

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